Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 82
________________ [ ८० ] १२४. भगवई १५।१०१ १२५. तत्थ य सोमाजयंतीओ उप्पलस्स भगिणीओ पासावच्चिज्जाओ दो परिब्वाइयातो ण तरंति पव्वज्जं काऊण ताहे परिव्वाइयत्तं करेति । - आवश्यक चूर्णि पूर्वार्ध पृ० २८६ १२६. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए नामं अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी । - भगवई ९।३२ १२७. वही ९।३२।१३४ १२८. पट्टावली समुच्चय उप केशगच्छ पट्टावली पृ० १७७ - १९४, श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, (गुजरात) १२९. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पति दंडए वा, भंडए वा, छत्तए वा, मत्तए वा, लट्ठियं वा, भिसि वा, चेले वा, चेलचिलिमिलि वा, चम्मं वा, चम्मकोसं वा, चम्मपलिछएणं । - व्यवहारसूत्र ८1५ 130. On this assumption we can account for the division of the Church in Śvetambaras and Digambaras... There was apparently no sudden rupture but an original diversity ripened into division and in the end brought about the great schism. -The Sacred Books of the East, Vol. XLV p. XXII १३१. देखें - (अ) भगवान बुद्ध, जीवन और दर्शन - धर्मानन्द कौसम्बी, लोकभारती प्रकाशन १९८२ पृ० ७२ (ब) मज्झिमनिकाय महासोहनाद सुत्त १३२. पाइथागोरस की संस्था (Society) मुख्य रूप से किसी दर्शनविशेष की पीठ (School) नहीं थी । वास्तव में वह एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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