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[ ५६ ] अपनी आचार्य परम्परा को प्रस्तुत करता है पर इस पट्टावली के ध्यान पूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि आर्यकेशी के पश्चात् ११वीं शती के मध्य तक हमें इस परम्परा के सम्बन्ध में अनुश्रुति से नामों की पुनरावृत्ति के अतिरिक्त ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः हमें अन्धकार में ही रहना पड़ता है। यद्यपि ११ वीं से २० वीं शती तक इस गच्छ की जो पट्टावली उपलब्ध है उसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। उपकेशगच्छ के सन्दर्भ में प्राचीनतम स्पट अभिलेख वि० सं० १०११ से प्राप्त होने लगता है । अर्थात् ११ वीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर १७ वीं शताब्दी तक की पाषाण एवं धातु प्रतिमा तथा मंदिरों से उपकेशगच्छ के अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। अतः ११ वीं से २० वीं शती तक इसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है यद्यपि इससे पूर्व के १५०० वर्ष का काल अन्धकारपूर्ण ही है। यद्यपि उपकेशगच्छ स्वयं को पार्श्व की परम्परा से जोड़ता है फिर भी हमें इस गच्छ के आचारादि में कोई ऐसी विशिष्ट परम्परा नहीं मिलती है जो उसे अन्य श्वेताम्बर गच्छों से स्पष्ट रूप से अलग कर सके । सम्भव यह है कि आर्यकेशी आदि के द्वारा महावीर के संघ में विलीन होने पर इन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान तो खो दी किन्तु अपने को पार्श्व की परम्परा से जोड़े रखने की अनुश्रुति यथावत् जीवित रखी । अतः हम यह कह सकते हैं कि पार्श्व की परंपरा २० वीं शती तक जीवित रही है चाहे उसकी अपनी विशिष्ट पहचान केशी आदि पाश्र्वापत्य आचार्यों के महावीर के संघ में विलीन होने के पश्चात् समाप्त हो गयी हो। पार्ग सम्बन्धी साहित्य
यद्यपि स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, राजप्रश्नीय आदि में पार्श्व और उनकी परम्परा के सम्बन्ध में प्रकीर्ण विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु पार्श्व के सम्बन्ध में सुव्यवस्थित विवरण देने वाला कल्पसूत्र को छोड़कर अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। कल्पसूत्र भी विशुद्धरूप से केवल पार्श्व का ही जीवनवृत्त नहीं देता है, अपितु वह अन्य तीर्थंकरों का जीवन परिचय संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करता है। नियुक्तियों, भाष्यों और चूणियों में भी पार्श्व और उनकी परम्परा के
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