Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 64
________________ [ ६२ ] सन्दर्भ : १. स्थ (7) निकिये कुले गनिस्य उग्गहिनिय शिषो वाचको घोषको आहेतो पर्यस्य प्रतिमा -जैन शिलालेख संग्रह, द्वितीय भाग लेख क्रमांक ८३ पृ. ५२ २. जैन साहित्य का इतिहास पूर्वपीठिका (पं0 कैलाशचन्दजी). पृ० ४५० ३. (अ) पारशव इत्येके । बौधायन धर्मसूत्र १।१७।३ (ब) कामात्पारशव इति पुत्राः । वही २।३।३० ४. (अ) देखें-जैन आगमों पर गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद द्वारा आयोजित सेमीनार में पठित मेरा लेख। (अप्रकाशित) (ब) ऋषिभाषित की भूमिका, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर से प्रकाश्यमान । ५. (अ) पासेण अरहता इसिणा बुइतं । (ब) गति वागरणगंथाओ पभिति जाव सामित्तं इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सति । -इसिभासियाई ३१ ६. (ए) सूत्रकृतांग २१७८ (बी) आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध १५।२५ (सी) उत्तराध्ययन २३।१, २३।१२ २३१२३ (डी) भगवती, १।४२३; २१९५, ९७, १०९, ११०; ५।२५४. २५७; ९७० (इ) कल्पसूत्र-१४९-१५९ (एफ) निरयावलिका-३।१ (जी) आवश्यकनियुक्ति २२१.३२, २३४, २५२-५४, २५९, २६२, २६८, २९९, ३०५, ३७७, ३८०, ३८४-८९, १०९८ (एच) समवायांग ८1८, ९।४, १६१४, २३॥३, २४।१, ३०१६, ३८।१,७०१२, ९५३ प्रकीर्ण समवाय १४, ३४, ६२, ६३, ६६, ७८, २२२, २२४।१, २२७११, २२८१ स्थानांग ९।६१, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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