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चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामोवि बहुफलो होइ । नरतिरिएसुवि जीवा, पावंति न दुक्ख दोगच्चं ॥ तु सम्मत्ते लद्ध, चिंतामणि- कप्पपायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं जीवा अयरायरं ठाणं ॥ इअ संधुओ महायस, भत्तिम्भरनिब्भरेण हियएण । ता देव दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥ - उवसग्गह रस्तोत्र (गुजराती) गाथा १-५ पृ. १४ ३८. (अ) आगम साहित्य तथा छठी-सातवीं शताब्दी तक निर्मित नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि ग्रन्थों में तीर्थंकरों के यक्षयक्षी की अवधारणा का कोई उल्लेख नहीं है । जहाँ तक मेरी जानकारी है श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम, कहावली, निर्वाणकलिका त्रिषष्टिशलाकापुरिषचरित्र, और प्रवचनसारोद्धार तथा दिगम्बर परम्परा में तिलोय - पण्णत्ति, प्रतिष्ठासारोद्धार, अपरिजपृच्छा आदि में यक्षयक्षियों के उल्लेख मिलते हैं । किन्तु इनमें भी नामों को लेकर मत वैभिन्न्य देखा जाता है । उवसग्गहर स्तोत्र में सर्वप्रथम पार्श्व नामक यक्ष की सूचना मिलती है । यद्यपि प्रवचनसारोद्धार में इसे वामन कहा गया है । दिगम्बर परम्परा के प्रतिष्ठासारसंग्रह में और प्रतिष्ठासारोद्धार में यक्ष का नाम धरण है । कुछ परवर्ती श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी पार्श्व के यक्ष को धरण कहा गया है "पार्श्वस्य धरणो यक्षः श्यामाङ्गः कूर्मवाहनः - प्रतिष्ठासारसंग्रह,
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धरणोनीलः कर्मश्रितो भजतु वासुकिमौलिरिज्याम् । - प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५१;
३८. (ब) वामन २३ श्रीपार्श्वजिनस्य वामनो यक्षो मतान्तरेण पार्श्वनामा यक्षो गजमुख उरगफणमण्डित शिराः श्याम वर्णः देवीओ पउमावई २३ ॥ श्री प्रवचनसारोद्धारः (पूर्वभागः )
३९. ( अ ) मातुलिङ्गगदायुक्तो विभ्राणो दक्षिणी करो । वामी नकुल सर्पाको कूर्माङ्कः कुञ्जराननः ॥
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