Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 57
________________ [ ५५ ] ७५वें पट्टधर सिद्धसूरि का पाटमहोत्सव विक्रमपुर नगर में वि० सं० १६५५ में महामंत्री ठाकुरसिंह ने किया। इनके सम्बन्ध में वि० सं० १६५९ का अभिलेखीय साक्ष्य भी उपलब्ध है। उपकेशगच्छ की जिस पट्टावली को हमने आधार बनाया है, वह इन्हीं के काल में बनी। यद्यपि उसमें इनके बाद भी निम्न नाम जोड़े गये। ७६वें पट्टधर पुनः कक्कसूरि हुए। इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १६८९ में मंत्री ठाकुरसिंह की पुत्रवधू साहिबदे द्वारा हुआ। पट्टावली के सूचनानुसार ७७वें पट्टधर देवगुप्तसूरि हुए, इन्हें वि० सं० १७२७ में आचार्यपद प्रदान किया गया। ७८वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए। इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १७६७ में भगतसिंह ने किया। ७९वें पट्टधर पुनः कक्कसूरि हुए । इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १७८३ में मंत्री दौलतराम ने किया। ८०वें पट्टधर देवगुप्तरि हुए। इनको आचार्यपद पर १८०८ में प्रतिष्ठित किया गया। ८१वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए । इनका पट्टाभिषेक खुशालचन्द ने वि० सं० १८४७ में किया। ८२वें पट्टधर कक्कसूरि हुए । इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १८९१ में बीकानेर में हुआ। ८३३ पट्टधर देवगुप्तसूरि हुए । इनका पट्टाभिषेक वि० सं० १९०५ में फलौदी नगर के वैद्य मुहता के परिवारों द्वारा किया गया। ८४वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए। इनका पट्टाभिषेक वैद्य मुहता गोत्र के ठाकुर श्री हरिसिंह जी के द्वारा वि० सं० १९३५ में किया गया। इनके पश्चात् इस परम्परा में वर्तमान काल तक कुछ और आचार्य हुए होंगे जिनकी सूचना हमें नहीं है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उपकेशगच्छ, जो स्वयं को पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बद्ध मानता है, पाव से लेकर २० वीं शती तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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