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पुनः देवगुप्त, ४८वें और ४९ वें पर पुनः कक्कसूरि के होने का उल्लेख है । इनके पश्चात् ५०वें पट्ट पर देवगुप्तसूरि हुए इनका समय संवत् ११०८ बताया गया है । कहा जाता है कि इन्हें भिन्नमाल नगर में ६ लाख मुद्रा खर्च करके आचार्य पद पर महोत्सवपूर्वक स्थापित किया गया था। यहां विचारणीय तथ्य यह है कि ४४वें पट्टधर देवगुप्तसूरि का समय वि० सं० १०७२ वताया गया है और ४५वें पट्टधर कक्कसूरि का १०७८ का अभिलेख भी प्राप्त होता है । १०७८ वि० सं० से लेकर ११०८ तक के ३० वर्ष के अल्प समय में चार आचार्यों का होना संदेहास्पद लगता है । संभवतः पट्टावलीकार ने तीनों नाम पुनः दोहरा दिये हैं । ५१ वें पट्टधर सिद्धसूरि, ५२ वें पट्टधर कक्कसूरि का समय वि० सं० १२५४ बताया गया है । ५३वें पट्टपर देवगुप्तसूरि ५४वें पर सिद्धसूरि ५५वें पर पुनः कक्कसूरि हुए । इन ५५ वें पट्टधर का समय पट्टावली के अनुसार वि० सं० १२५२ है | इनके संबन्ध में १२५९ का अभिलेख भी मिलता है, इससे यह सिद्ध होता है कि यह एक ऐतिहासिक आचार्य रहे होंगे । ५६वें देवगुप्त, ५७ वें सिद्धसूरि, ५८वें कक्कसूरि, ५९वें देवगुप्त, ६१ वें कक्कसूरि, ६२वें देवगुप्त, ६३वें सिद्धसेन, ६५ वें देवगुप्तसूरि, ६६ वें सिद्धसूरि हुए । इस प्रकार वि० सं० १२५२ से १३३० के मध्य लगभग ७८ वर्ष की अवधि में दस आचार्यों के होने के उल्लेख हैं । यह विवरण भी संदेहास्पद ही लगता है । लगता है कि इसमें दो बार इन तीनों नामों को पुनः दुहरा दिया गया है। अधिकतम ७८ वर्ष में ३ आचार्यों को होना चाहिए । ६६ वें पट्टधर सिद्धसूरि के वि० सं० १३४५ का एक अभिलेख भी मिलता है । सिद्धसूरि का एक अभिलेख १३८५ का भी प्राप्त होता है ।
पट्टावली और अभिलेखीय आधारों पर ६५-६६वें आचार्य का काल ५५-५६ वर्ष आता है । यद्यपि ६७वें पट्टधर कक्कसूरि का एक अभिलेख १३८० का उपलब्ध है । इससे ऐसा लगता है कि सिद्धसूरि ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में ही कक्कसूरि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया था और लगभग १४ वर्ष की अवधि तक दोनों ही उनके साथ आचार्य पद पर रहे होंगे ।
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६० वें सिद्धसूरि, ६४वें कक्कसूरि,
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