Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 54
________________ [ ५२ ] इनके द्वारा बारह वर्षीय दुष्काल के पश्चात् महावीर की परम्परा में हुए आर्यवन के शिष्य वज्रसेन के निधन के पश्चात् उनकी परम्परा में उनके शिष्यों की चार शाखायें स्थापित करने का उल्लेख मिलता है । यद्यपि इन चार शाखाओं का उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली में है किन्तु यह यक्षदेवसूरि द्वारा स्थापित हुई थी ऐसा उसमें उल्लेख नहीं है । यक्षदेवसूरि के पश्चात् १९वें पट्टपर कक्कसूरि, २०वें पर देवगुप्त, २१वें पर सिद्धसूरि, २२वें पर रत्नप्रभसूरि, २३वें पर यक्षदेव, २४वें पर पुनः कक्कसूरि, २५वें पर देवगुप्तसूरि, २६वें पर सिद्धसूरि, २७वें रत्नप्रभसूरि, २८वें पर यक्षदेवसूरि, २९वें पर पुनः कक्कसूरि, ३०वें पर देवगुप्त, ३१वें पर सिद्धसूरि, ३२वें पर रत्नप्रभसूरि, ३३ पर यक्षदेवसूरि, ३४वें पर पुनः कक्कसूरि, ३५वें पर देवगुप्त तथा ३६वें पर सिद्धसूरि हुए । इस प्रकार ८वें पट्ट से लेकर ३६वें पट्ट तक कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि, रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि इन पांच नामों की ही पुनरावृत्ति होती रही है । इन आचार्यों के सम्बन्ध में पट्टावली भी नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी नहीं देती है। इसके पश्चात् हम देखते हैं कि पट्टावली में केवल तीन नामों कक्कसूरि, देवगुप्त और सिद्धसूरि की ही पुनरावृत्ति होती है। फलतः ३७वें पट्ट पर कक्कसूरि, ३८वें पर देवगुप्त, ३९वें पर सिद्धसूरि, ४०वें पट्ट पर पुनः कक्कसूरि, ४१वें पर देवगुप्तसूरि, ४२वें पर सिद्धसूरि के होने का उल्लेख है। ४१वें पट्टधर देवगुप्त का समय वि० सं० ९९५ ' बताया गया है । उपकेशगच्छीय पट्टावली में सर्वप्रथम यहीं से ऐतिहासिक संकेत उपलब्ध होने लगते हैं। पट्टावली इनके शिथिलाचारी होने का भी उल्लेख करती है तथा यह बताती है कि देवगुप्तसूरि के शिथिलाचारी होने पर संघ ने इनके पट्ट पर सिद्धसूरि को स्थापित किया। सिद्धसूरि के पश्चात् ४३वें पट्टधर कक्कसूरि हुये। इन्हें "पंचप्रमाण' नामक ग्रन्थ का कर्ता बताया गया है। ४४वें पट्टधर देवगुप्त हुए। इनका काल विक्रम सम्वत् १०७२ बताया गया है। ४५३ पट्टधर नवपदप्रकरणस्वोपज्ञटीका के कर्ता सिद्धसूरि और ४६३ पट्टधर पुनः कक्कसूरि के होने के. उल्लेख मिलते हैं। इन कक्कसूरि के सम्बन्ध में १०७८ ई० का एक अभिलेख प्राप्त होता है । ४७वें पट्ट पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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