Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 52
________________ [ ५० ] बताती है कि स्वयंप्रभसूरि के शिष्य बुद्धकीति से बौद्धधर्म प्रारम्भ हुआ। किन्तु हमारी दृष्टि में यह एक काल्पनिक अवधारणा ही है। यह तो संभव है कि पार्श्व की परम्परा से बुद्ध का कुछ परिचय रहा हो, किन्तु बुद्ध को स्वयंप्रभसूरि का शिष्य बताना एक कल्पना ही है । यह भी माना जाता है कि स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर में धर्मोपदेश कर नब्बे हजार परिवारों को जैनधर्म में दीक्षित किया था। इन्हीं से श्रीमाल जाति का प्रारम्भ हआ। आज इस सम्बन्ध में कोई भी साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। श्रीमालनगर की प्राचीनता भी पुरातात्त्विक प्रमाणों से ई० पूर्व छठी शताब्दी में सिद्ध नहीं होती, अतः यह केवल परम्परागत विश्वास ही माना जा सकता है। उपकेशगच्छपट्टावली के अनुसार स्वयंप्रभसूरि के पश्चात् छठे पट्ट पर रत्नप्रभसूरि हुए। इनके द्वारा उपकेशपुर एवं कोरण्टपुर में भगवान् महावीर की प्रतिमा स्थापित करने के उल्लेख मिलते हैं । पट्टावली के विवरणानुसार ये दोनों मन्दिर वीर निर्वाण के ७० वर्ष पश्चात् निर्मित हुए थे किन्तु आज इस संदर्भ में भी हमें कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। पदावली में रत्नप्रभसरि के द्वारा भी राजस्थान में लगभग एक लाख चालीस हजार लोगों को जैनधर्म में दीक्षित करने का उल्लेख प्राप्त होता है । यद्यपि इस सम्बन्ध में पुष्ट प्रामाणिकता का अभाव है परन्तु इतना अवश्य माना जा सकता है कि इन्होंने राजस्थान में विहार करके वहाँ लोगों को जैनधर्म में दीक्षित किया होगा। इनका स्वर्गवास वीर निर्वाण संवत् ८४ में माना जाता है। राजस्थान में ई० पू० पाँचवीं शताब्दी में जैनधर्म की उपस्थिति .पुरातात्त्विक प्रमाणों से सिद्ध होती है । वीर निर्वाण के ८४ वर्ष पश्चात् का एक अभिलेख बाडली (राजस्थान) से प्राप्त होता है जो इस तथ्य को प्रामाणित कर देता है। यद्यपि यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि रत्नप्रभसूरि ने पार्वापत्य परम्परा के होकर भी पार्श्व के स्थान पर महावीर के मंदिरों का निर्माण क्यों कराया ? इस सूचना से ऐसा लगता है कि केशी के महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो जाने के 'पश्चात् उनके शिष्य स्वयंप्रभ और प्रशिष्य रत्नप्रभ भी अपने को महावीर की परम्परा से ही सम्बन्धित मानते रहे होंगे । ई० पू० ५वीं शताब्दी में पार्श्व की कोई स्वतंत्र परम्परा चल रही थी, इसका हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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