Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 50
________________ [ ४८ ] महावीर के समकालीन थे। पट्टावली में उपलब्ध इन सूचनाओं के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है। जहां तक आर्य केशी का संबंध है उनकी ऐतिहासिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि उत्तराध्ययन और राजप्रश्नीय यह दो आगम ग्रन्थ उनके अस्तित्व के संबंध में हमें स्पष्ट सूचनायें देते हैं। जहां तक आर्य शुभदत्त, आर्य हरिदत्त और आर्य समुद्र की ऐतिहासिकता का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में थोड़े विचार की आवश्यकता अवश्य है कल्पसूत्र और समवायाङ्ग के अनुसार पार्श्व के प्रथम शिष्य आर्य दिन हैं । जबकि इन्हीं ग्रन्थों में पार्श्व के प्रथम गणधर को शुभ कहा गया है। यदि हम प्रथम गणधर का पूरा नाम शुभदत्त मानें तो आर्य दिन के साथ उसकी सङ्गति यह कह कर बैठाई जा सकती है कि संक्षेपीकरण में आर्य शुभदत्त का आर्यदत्त ( अज्ज दिन्न ) रह गया हो। हेमविजय गणि ने पार्श्वचरित्र में प्रथम गणधर का नाम आर्यदत्त ही सूचित किया है। अतः पार्श्व की आचार्य परम्परा में प्रथम पट्टधर के रूप में आर्य शुभदत्त को स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु आर्य शुभदत्त का जो नेतृत्वकाल २४ वर्ष माना जाता है वह विवादास्पद लगता है। इतना निश्चित है कि पार्श्व ने उन्हें अपनी तीस वर्ष की आयु में दीक्षित करके गणधर बनाया था। यदि हम गणधर बनाते समय उनकी आयु को पच्चीस वर्ष भी मानें तो पार्श्व के निर्वाण के समय उनकी आयु ९५ वर्ष से कम नहीं रही होगी। पुनः २५ वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को गणधर जैसे महत्वपूर्ण पद पर स्थापित कर देना सम्भव नहीं लगता । सामान्य विश्वास के अनुसार भी उस समय की अधिकतम आयु १०० वर्ष मानें तो इनका आचार्य काल ५ वर्ष से अधिक नहीं होता उनकी आयु लगभग १२० वर्ष मानने पर ही उनके आचार्य काल को २४ वर्ष माना जा सकता है । जहां तक आर्य हरिदत्त और आर्य समुद्र का प्रश्न है उनकी ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में साक्ष्यों के अभाव में निश्चित रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है । अतः इनकी ऐतिहासिकता सन्दिग्ध ही लगती है, पुनः इन दोनों आचार्यों का आचायत्व काल क्रमशः ७०, ७२ वर्ष माना गया है। यह भी विचारणीय अवश्य है। इसी प्रकार आर्य केशी के ८४ वर्ष के आचार्यत्व काल पर भी प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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