Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 38
________________ [ ३६ ] किया है । भिक्षोपजीवी भिक्षु के लिये भिक्षा माँगते समय अनेक बार कठोर वचन सुनने को मिल सकते थे । आगम - साहित्य में ग्राम धर्म शब्द मैथुन के अर्थ में भी आया है । चूंकि महावीर की परम्परा में भिक्षु को नग्न रहना होता था, इसलिये उसे अपनी कामवासना सम्बन्धी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना होता था । साथ ही उनके नग्न रूप-सौन्दर्य से आकर्षित होकर स्त्रियां उनसे विषय सेवन की प्रार्थना करती रही होंगी अतः उन्हें अपनी ब्रह्मचर्य साधना के लिये इन सारी स्थितियों को सहन करना होता था । आचाराङ्ग को देखने से ज्ञात होता है कि इस प्रकार की घटनाएं स्वयं महावीर के साथ भी घटित हुई थी । इन चर्चाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नग्नता, अस्नान, अदन्त धावन, छाता नहीं रखना, जूते नहीं पहनना, भूमि पर शयन करना, केशलोच, निमन्त्रित भोजन स्वीकार नही करके भिक्षावृत्ति करना और ब्रह्मचर्य की कठोर साधना करना ऐसी विशेषतायें थी जो महावीर की परम्परा में प्रचलित थी, जबकि पार्श्व की परम्परा के भिक्षुओं में इन सबका स्पष्ट निषेध नहीं था । छेदसूत्रों में मुनि आचार में छाता, जूते, क्षुर-मुण्डन का जो उल्लेख है वह इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि पार्श्वपत्यों में ये सब बातें प्रचलित थी । इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्श्व और महावीर की परंपरा आचार व्यवस्थाओं को लेकर अनेक बातों में भिन्न थीं । दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि महावीर ने पार्श्व की आचार व्यवस्था के सन्दर्भ में अनेक संशोधन कर दिये थे । पाश्र्वापत्य और पार्श्वस्थ पार्श्वनाथ की परम्परा के सम्बन्ध में प्राचीन और प्रामाणिक जानकारी हमें अर्धमागधी आगम साहित्य के अतिरिक्त अन्य किन्हीं स्रोतों से प्राप्त नहीं होती है । पालि त्रिपिटक साहित्य में सच्चक, वप्प आदि कुछ व्यक्तियों का परिचय उपलब्ध होता है किन्तु वहाँ उन्हें पार्श्व के उपासक के रूप में चित्रित नहीं किया गया है, अपितु निर्ग्रन्थों के अनुयायी के रूप में चित्रित किया गया है। पार्श्वापत्यीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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