Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ [ ३५ ] कट्टसेज्जा केसलोओ वंभचेरवासो परघरप्पवेसो लद्धावलद्धी उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जति । ( भगवती १।९।४३२-३३) उपर्युक्त विवरण से यह फलित होता है कि पार्श्व की परम्परा के भिक्षुओं में वस्त्र पहनने के साथ-साथ स्नान करना, दन्तधावन करना, छाता रखना, जूता पहनना और कोमल शय्या पर शयन करना आदि प्रचलित था, क्योंकि कालस्यवेशिकपुत्र को महावीर की परम्परा में दीक्षित होने पर इन सबका त्याग करना पड़ा था। इसी प्रकार केशलोच, और ब्रह्मचर्य भी महावीर के परम्परा की विशिष्टता थी, क्योंकि कालस्यवेशिकपुत्र ने केशलोच और ब्रह्मचर्य को भी स्वीकार किया था। सम्भावना यह लगती है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि अन्य परम्पराओं के श्रमणों की तरह शिर मुण्डन करवाते होंगे। मेरी दृष्टि में केशलोच आजीवकों और महावीर की परम्परा की ही विशिष्टता थी । ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में महावीर की परम्परा में जो विशिष्टता थी, उसकी चर्चा हम पूर्व में कर ही चुके हैं। इसी प्रसंग में पर-गृह प्रवेश, प्राप्ति-अप्राप्ति, ऊँच-नीच और ग्रामकण्टक की भी चर्चा है, हमें इनके अर्थ समझने होंगे। परगृह प्रवेश की साधना का तात्पर्य मेरी दृष्टि में भिक्षा के लिये गृहस्थों के घरों पर जाना है। जैसी कि हमने पूर्व में चर्चा की है, पार्श्व की परम्परा में निमंत्रित भोजन स्वीकार करते थे, अतः उन्हें भिक्षार्थ घरपर भटकना नहीं पड़ता था,न उन्हें भिक्षा के प्राप्ति-अप्राप्ति की कोई चिन्ता होती थी, क्योंकि जब निमंत्रित भोजन ग्रहण करना है तो अलाभ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। इसी प्रकार उच्चावया का अर्थ ऊँच-नीच होना चाहिए । वस्तुतः जब निमंत्रित भिक्षा स्वीकार की जायेगी तो सामान्यतया जो सम्पन्न परिवार हैं उन्हीं के यहाँ का निमंत्रण मिलेगा इसलिये निमंत्रित भोजन स्वीकार करने वाली परम्परा को धनी-निर्धन अथवा ऊँच-नीच कुलों में भिक्षा के लिये जाना नहीं होता। महावीर की परंपरा में चूंकि अद्देशिक भिक्षा का नियम था, अतः उनके श्रमणों को सभी प्रकार के कुलों अर्थात् बनी-निर्धन या उच्च-निम्न कुलों से भिक्षा लेनी होती थी। प्रामकण्टक का अर्थ टीकाकारों ने कठोर शब्द सहन करना, ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86