Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 42
________________ [ ४० ] रण हमें ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक ही लगता है। उदकपेढाल का गौतम से त्रस शब्द के अर्थ और हिंसा के प्रत्याख्यान के स्वरूप के.संबंध में गम्भीर चर्चा करते हैं। इससे एक ओर पाश्वपित्यों की सैद्धान्तिक अवधारणाओं का पता चलता है तो दूसरी ओर यह भी ज्ञात होता है कि पाश्र्वापत्यों और महावीर के श्रमणों के बीच अनेक दार्शनिक प्रश्नों को लेकर गम्भीर चर्चायें होती थीं। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में गांगेय अनगार और महावीर के बीच जीवों की मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक और देवगतियों पर तथा लोक की शाश्वता पर चर्चा होती है । 1 भगवतीसूत्र में ही कालस्यनैशिकपुत्र की महावीर के स्थविर श्रमणों से चर्चा का भी उल्लेख है । 13 उनकी चर्चा का मुख्य विषय सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग का स्वरूप है । भगवतीसूत्र में वाणिज्यग्राम में कुछ पापित्य श्रमणों की भगवान् महावीर से चर्चा का भी उल्लेख है। ये पापित्य श्रमण महावीर से लोक के स्वरूप के संबंध में चर्चा करते हैं, और महावीर पार्श्व की मान्यताओं के आधार पर ही उन्हें लोक का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । महावीर के उत्तरों से सन्तुष्ट होकर वे महावीर का पञ्चमहाव्रतात्मक सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में ही जब महावीर अपना तेईसवाँ वर्षावास, श्रावस्ती नगर में संपूर्ण कर राजगृही आये थे, उसी समय राजगृह के निकट तुंगिया नगरी में पापित्य स्थविर पाँच सौ अनगारों के साथ निवास कर रहे थे । 4 तुगिया के श्रमणोपासक इन स्थविरों को वन्दन करने के लिए जाते हैं और उनसे संयम और तप के फल के संबंध में चर्चा करते हैं । पापित्य श्रमणों ने इनका जो प्रत्युत्तर दिया था, गौतम महावीर से उसकी प्रामाणिकता के संबंध में जानना चाहते हैं। इस संबंध में महावीर कहते हैं कि पापित्य स्थविरों ने जो उत्तर दिया है वह यथार्थ और पूर्ण सत्य है । इस चर्चा प्रसंग से हमें दो बातों की जानकारी मिलती है। प्रथम तो यह कि महावीर के गृहस्थ उपासक पापित्य परंपरा के श्रमणों के यहाँ जाते थे और तत्त्वजिज्ञासा को लेकर उनसे प्रश्नोत्तर भी करते थो। दूसरे यह कि महावीर अनेक संदर्भो में पार्श्वनाथ की तात्त्विक और दार्शनिक मान्यताओं को यथार्थ मानकर स्वीकार करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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