Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ [ २० ] हैं, किन्तु उनका इस श्रमण परम्परा को एक विशिष्ट अवदान है। यद्यपि श्रमणों ने वैदिकों के हिंसक यज्ञ-याज्ञों का खण्डन कर उनकी कर्मकाण्डी परम्परा को अस्वीकार कर दिया था, किन्तु श्रमण धारा में भी यह कर्मकाण्ड किसी तरह प्रविष्ट हो गया था। उसमें भी तप और त्याग-विवेक प्रधान न रह कर कर्मकाण्ड-प्रधान बन गये थे। ऐसा लगता है कि पार्श्वनाथ के युग में श्रमण धारा में भी तप और त्याग के साथ कर्मकाण्ड पूरी तरह जुड़ा हुआ था और तप बाह्याडम्बर और देहदण्डन की एक प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं था। कठोरतम देहदण्डन द्वारा लोक में अपनी प्रतिष्ठा को अर्जित करना ही उस युग के श्रमणों और संन्यासियों का एकमात्र उद्देश्य था । औपनिषदिक ऋषियों की, ज्ञानमार्गी धारा अभी अपना रूप ले रही थी अतः सम्भव यही लगता है कि पार्श्व ने सर्वप्रथम श्रमण परम्परा में प्रविष्ट हुए इस देहदण्डन और कर्मकाण्ड का विरोध किया। उनके जीवनवृत्त में कमठ तापस का जो विवरण जुड़ा है, उसका उद्देश्य भी तप और ध्यान को मात्र देह दण्डन की प्रक्रिया से मुक्त करना है। पार्श्वनाथ अभी युवा ही हुए थे, उन्होंने देखा कि वैदिक परम्परा के यज्ञों में प्राणियों का बलिदान हो रहा है। किन्तु वैदिकों की परपीडन की प्रवृत्ति का स्थान श्रमण धारा में स्व-पीडन ने ले लिया दूसरों को बलिवेदी पर चढ़ाने के स्थान पर व्यक्ति स्वयं अपने कों बलिदान की वेदी पर चढ़ाने लगा है। पर-पीड़न की वृत्ति आत्म-पीड़ना के रूप में विकसित होने लगी थी और उस आत्म-पीड़न में भी किसी न किसी रूप में पर-पीड़न जुड़ा हुआ था। इसीलिये पार्श्व कुमार को कमठ से कहना पड़ा होगा कि तुम्हारी इस साधना में आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति कहाँ है ? इसमें न तो स्वहित है और न परहित या लोकहित । खुद भी पीड़ित हो रहे हो और दूसरों को भी पीड़ित कर रहे हो । एक ओर पंचाग्नि तप की इस ज्वाला से तुम्हारा शरीर झुलस रहा है तो दूसरी ओर उसमें छोटे-बड़े अनेक जीव-जन्तु भी झुलस रहे हैं। न जाने कितने कीट-पतंग तुम्हारी इस अग्नि की ज्वाला में जीवन की बलिवेदी पर चढ़ रहे हैं। मात्र यही नहीं तुम जिस लक्कड़ को जला रहे हो उसमें एक नाग युगल भी जल रहा है । पार्क के कथानक में लक्कड़ को खींचकर उसमें से उस नाग युगल को बचाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86