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महाकश्यप, सारिपुत्र आदि अध्यायों को देखने से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है । अतः उसमें प्रस्तुत पार्श्व के विचार भी प्रामाणिक माने जा सकते हैं। ऋषिभाषित के पश्चात् श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में उत्तराध्ययन का स्थान आता है जिसमें गौतम केशी के संवाद में पार्व की परम्परा की मुख्य मान्यताओं के सम्बन्ध में संक्षिप्त सूचनायें उपलब्ध होती हैं। इसके पश्चात् सूत्रकृतांग और भगवती में कुछ ऐसे प्रसंग हैं जहाँ पाश्र्वापत्यों द्वारा या उनके माध्यम से पार्श्व की मान्यताओं को संकेतित किया गया है। भगवती का एक स्थल तो ऐसा है जहाँ महावीर पार्श्व की मान्यताओं से अपनी सहमति भी प्रकट करते हैं।' 4 'रायपसेनिय' में राजा पयासी (प्रदेशी) और केशी के बीच हुए संवाद में आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं वे भी पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित माने जा सकते हैं। क्योंकि उनके प्रतिपादक केशी स्वयं पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित हैं। सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकनियुक्ति में कुछ ऐसे स्थल भी हैं जहाँ पार्श्व की परम्परा और महावीर की परम्परा में अन्तर को स्पष्ट किया गया है। 76
प्रस्तुत प्रसंग में इन्हीं सब आधारों पर हम पार्श्व की मूलभूत दार्शनिक और आचार सम्बन्धी मान्यताओं को स्पष्ट करेंगे। साथ ही उनमें और महावीर की मान्यताओं में क्या अन्तर रहे हैं, अथवा महावीर ने पार्श्व की परम्परा को किस प्रकार संशोधित किया है, इसकी चर्चा करेंगे। ऋषिभाषित में वर्णित पाश्र्व का धर्म और दर्शन
जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि पार्श्व के उपदेशों का प्राचीनतम सन्दर्भ हमें ऋषिभाषित में प्राप्त होता है। ऋषिभाषित में पार्श्व की मान्यता के सन्दर्भ में से दर्शन सम्बन्धी और आचार सम्बन्धी दोनों ही पक्ष उपलब्ध होते हैं। यहां हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित में पार्श्व नामक अध्ययन ही ऐसा है जिसका एक पाठान्तर भी उपलब्ध होता है । ग्रन्थकार ने इसकी चर्चा करते हुए स्वयं ही कहा है कि "गति व्याकरण नामक ग्रन्थों में इस अध्याय का दूसरा पाठ भी देखा जाता है। इस सूचना के साथ
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