Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 34
________________ [ ३२ ] भोजन का भी स्पष्ट रूप से निषेध किया, हो सकता है कि पार्श्व की परंपरा में इस सम्बन्ध में स्पष्ट निषेध नहीं रहा हो। सप्रतिक्रमण धर्म- महावीर और पार्श्व की परंपरा का मुख्य अन्तर जो कि प्राचीन आगम साहित्य में उपलब्ध है, वह यह है कि पाव की परंपरा में प्रातः काल और सायं काल प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं था । महावीर ने अपने संघ में यह व्यवस्था की थी. कि प्रत्येक साधु को, चाहे उसने किसी दोष का सेवन किया हो या न किया हो, प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल प्रतिक्रमण करना ही चाहिये। जबकि पार्श्व की परंपरा के संबंध में हमें केवल इतनी ही जानकारी मिलती है कि पाश्र्वापत्य श्रमण यदि किसी दोष का सेवन होता था तभी प्रतिक्रमण या प्रायचित्त करते थे। इसका तात्पर्य यही है कि यद्यपि दोषों के सेवन से होने वाले पाप के प्रायश्चित्त के लिये प्रतिक्रमण करना तो दोनों को ही मान्य था किन्तु महाबीर साधक को अधिक सजग रहने के लिए इस बात पर अधिक बल देते थे प्रत्येक साधक को प्रातःकाल और सायंकाल अपने दिन या रात्रि के क्रियाकलापों पर चिन्तन करे और यह देखें कि उसके द्वारा किसी दोष का सेवन हुआ है या नहीं। अतः प्रतिक्रमण की अनिवार्यता पार्श्व की परंपरा में महावीर का एक संशोधन था। सूत्रकृतांग और भगवती में महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है। सामायिक और छेदोपस्थापनीय चरित्र का प्रश्न-पाव और महावीर की परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह भी था कि महावीर की परंपरा में सामायिक चारित्र के पश्चात् साधक को योग्य पाये जाने पर ही छेदोपस्थापनीयचारित्र दिया जाता था। 7 सामायिक चारित्र में साधक समभाव की साधना के साथ-साथ सावद्य योग अर्थात् पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करता था। जबकि छेदोपस्थापनीय चारित्र में वह महाव्रतों को ग्रहण करता था और संघ में उसकी वरीयता निश्चित कर दी जाती थी, किन्तु यदि वह अपने व्रत को भंग करता या किसी दोष का कोई सेवन करता तो उसकी इस वरीयता को कम (छेद) भी किया जा सकता था। मुझे ऐसा लगता है कि महावीर ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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