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सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा है । इस चर्चा में मुख्य रूप से इस दार्शनिक प्रश्न को भी स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार सत् ही उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है । महावीर जब यह कहते हैं कि सत् ही उत्पन्न होता है और सत् ही विनष्ट होता है तो गांगेय स्वाभाविक रूप से यह दार्शनिक समस्या उपस्थित करते हैं कि सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यदि वह उत्पन्न होता है तो इसका अर्थ होगा कि वह पहले असत् था, पुन: जो विनाश को प्राप्त होता है वह भी सत् कैसे हो सकता है ? इस प्रकार सत् के उत्पन्न और नष्ट होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । जो असत् है उसका भी उत्पाद और विनाश नहीं हो सकता । महावीर ने यहाँ गांगेय अनगार के समक्ष पार्श्वनाथ की ही मान्यता को स्पष्ट करते हुए यह बताया कि अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, इसमें न तो सर्वथा असत् की ही उत्पत्ति होती है और न सत् का सर्वथा नाश हो होता है । अतः अपने औदायिक एवं पारिणामिक भावों के कारण सत् ही उत्पन्न होता है और नष्ट होता है । " ऋषिभाषित के अनुसार भी पार्श्व के दर्शन में लोक को अनादि, अनिधन मानने के साथ-साथ उसे पारिणामिक या परिवर्तनशील भी माना गया है । यहाँ हम देखते हैं कि जैन दर्शन की उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक सत् की जो अवधारणा है उसका मूल पार्श्वनाथ की विचारधारा में स्पष्ट रूप से उपस्थित है । गांगेय और महावीर की इस चर्चा में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से निकलते हैं या इनका प्रेरक अन्य कोई है ? प्रत्युत्तर में महावीर कहते हैं कि जीव अपने ही शुभाशुभ कर्मों से चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं उनका प्रेरक अन्य कोई नहीं है । गांगेय का महावीर के इस उत्तर से सन्तुष्ट होकर उन्हें सर्वज्ञ मानना इस तथ्य का सूचक है कि पावपित्यों की भी यही मान्यता थी । ऋषिभाषित में भी कर्म सिद्धान्त की अवधारणा के साथ यह कहा गया है कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करता है परकृत का नहीं ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्श्व के दर्शन में जैन कर्म सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणा स्पष्ट रूप से उपस्थित थी ।
भगवती सूत्र में अन्यत्र 'कालाश्यवैशिक पुत्र' नामक पाश्र्वापत्य की भगवान् महावीर के कुछ स्थविर श्रमणों के साथ हुई चर्चा का भी
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