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[ ९ ] बात अधिक करता हैं, किन्तु यह सत्य है कि सभी मनुष्यों में कहीं न कहीं भौतिक सुख-सुविधाओं और लौकिक मंगल की आकांक्षा पाई जाती है और जब यह धारणा दढमूल हो जाती है कि भौतिक मंगल और भौतिक ऐषणाओं की प्राप्ति अमुक देव के द्वारा विशेष रूप से होती है, तो स्वाभाविक रूप से वही देव मुख्य रूप से उपासक की आस्था का केन्द्र बन जाता है । जैन परम्परा में पार्श्वनाथ के साथ भी यही हुआ है। जैन स्तोत्र साहित्य में सबसे प्राचीन स्तोत्र 'उवसग्गहर' माना जाता है । यह स्तोत्र पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में ही निर्मित हुआ है। इसमें उन्हें मंगल और कल्याण का आवास, विष-पीड़ाओं और विघ्न-बाधाओं का उपशमन करने वाला माना गया है और उनसे यह प्रार्थना की गयी है कि वे उपासक के सभी विघ्नों का उपशमन करें।
यद्यपि यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि जैन दर्शन के अनुसार पार्श्वनाथ तो वीतराग हैं, वे अपने भक्तों के विघ्नों के उपशमन तथा उसके मंगल और कल्याण के कर्ता किस प्रकार हो सकते हैं ? जैनों ने इस दार्शनिक समस्या के समाधान का एक मार्ग प्रस्तुत किया है। उनकी मान्यता है कि यद्यपि तीर्थंकर वीतराग होने के कारण न तो अपने भक्तों का कल्याण करता है और न उन भक्तों को पीड़ा देने वाले को दण्डित ही करता है; किन्तु तीर्थकर के जो यक्ष-यक्षी या भक्त देवता होते हैं वे ही उन तीर्थंकरों के उपासक भक्तों के विघ्नों का उपशमन करते हैं और उनका हित साधन या कल्याण करते हैं । पार्श्वनाथ के यक्ष-यक्षिणियों में धरणेन्द्र और पद्मावती का उल्लेख आता है। धरणेन्द्र को पार्श्व-यक्ष के रूप में भी माना जाता है । 8 यहाँ यह भी स्मरणीय है कि पार्न ही एक ऐसे तीर्थंकर हैं जिनके यक्ष को भी वही नाम दिया गया है। एक और मनोरंजक तथ्य यह भी है कि जैन परंपरा में पानं यक्ष की जो प्रतिमायें निर्मित होती हैं वे ठीक गणेश की प्रतिमाओं के समान ही हस्तिशीर्ष (गजशीर्ष) से युक्त होती हैं। गणेश और पार्न यक्ष की प्रतिमाओं में वाहन के अन्तर को छोड़कर पूर्णतया समानता देखी जाती है । यह भी सत्य है कि जैनधर्म में अनेक यक्षयक्षिणियों, विद्यादेवियों और शासन देवियों की मूर्तियों के लक्षणों को
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