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१० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
प्रबन्धकाव्य मिलते हैं। अपभ्रंश में पौराणिक और रोमांसिक दो ही शैलियों के प्रबन्धकाव्य मिलते हैं और वे सभी चरितकाव्य हैं।
चरितकाव्यों का लक्षण इस प्रकार किया गया है : १. चरितकाव्य की शैली जीवनचरित की शैली होती है। उसमें चरितकाव्य के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त की अथवा कई जन्मों ( भवान्तरों) की कथा रहती है।
२. चरितकाव्यों में प्रायः प्रेम, वीरता और धर्म या वैराग्य-भावना का समन्वय दिखलाई पड़ता है। सबमें कोई न कोई प्रेमकथा अवश्य होती है और उसका स्थान गौण नहीं, महत्त्वपूर्ण होता है। प्रायः सभी चरितकाव्यों में प्रेम का प्रारम्भ समान रूप से होता है। •
३. प्रायः सभी में कथारम्भ के लिए वक्ता-श्रोता योजना अवश्य रहती है।
४. उसमें अलौकिक, अतिप्राकृत और अतिमानवीय शक्तियों, कार्यों और वस्तुओं का समावेश अवश्य रहता है, जो पौराणिक और रोमांसिक शैली के कथाकाव्यों, पौराणिक कथाओं और लोककथाओं की देन है।
५. उनका कथानक शास्त्रीय प्रबन्धकाव्यों जैसा पंचसंधियों से युक्त और कार्यान्विति वाला नहीं होता। वह कथानकों की तरह स्फीत, विशृंखल, गुम्फित या जटिल होता है।
६. शैली कथाकाव्यों से अधिक उदात्त होती है। ७. यह उद्देश्यप्रधान होता है, मनोरंजनप्रधान नहीं ।
उद्देश्य और विषयवस्तु की दष्टि से चरितकाव्य छः प्रकार के होते हैं-धार्मिक, प्रतीकात्मक, वीरगाथात्मक, प्रेमाख्यानक, प्रशस्तिमूलक और लोकगाथात्मक । हिन्दी के अधिकांश मध्यकालीन प्रबन्धकाव्य अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों को भांति चरितकाव्य ही हैं।
यहाँ हम संस्कृत के लक्षणग्रन्थों के आधार पर कथा-आख्यायिका के रूप पर विचार करेंगे । 'कथा' शब्द संस्कृत की 'कथ्' धातु से बना है। इसका सामान्य अर्थ होता है 'जो कुछ कहा जाये वह कथा है। बंगला भाषा में भी उक्त अर्थ में ही इसका प्रयोग किया गया है। यदि कथा का अर्थ उसके सामान्य अर्थ पर से ही निर्धारित किया जाये तब कदाचित् वह अनुपयुक्त होगा। क्योंकि जो कुछ कहा जाये वह सभी कथा नहीं माना जा सकता। श्रीमद्भागवत में संसार ताप से संतप्त प्राणो के लिए कथा को पीयूष के समान जीवनदायिनी कहा गया है :