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प्रास्ताविक : ९ में साधु, पाखण्डी, जादूगर, कामान्ध, धूर्त, वेश्याओं और सेठों आदि के विषय में सजीव चित्रण तो है ही, साथ ही ऐसे अनुभवसिद्ध प्रयोग भी हैं जो सामाजिक जीवन निर्वाह करने वालों के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । दण्डी के मत से कथा और आख्यायिका में केवल नाम का भेद है।' बाण ने हर्षचरित को आख्यायिका और कादम्बरो को कथा माना है। हर्षचरित के प्रारम्भ में बाण लिखते हैं-'करोम्याख्यायिकाम्बोधौ जिह्वाप्लवनचापलम्' अर्थात् में इस आख्यायिका रूपी समुद्र में चपलतावश जिह्वा चला रहा हूँ। कादम्बरो को बाण ने 'कथा' द्वारा सम्बोधित किया है-'धिया निबद्धेयमतिद्वयी कथा'। बाण ने कथा और आख्यायिका सम्बन्धी जो विचार प्रस्तुत किया था उससे स्पष्ट है कि कथा कल्पना-जन्य और आख्यायिका का आधार इतिहास होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि आख्यायिका और कथा के परवर्ती लक्षण निर्धारण में बाण के इस संकेत में बड़ी सहायता मिली । चाहे चरितकाव्य हो अथवा कथाकाव्य, उसमें किसी न किसी रूप में कथा तो अनुस्यूत रहेगी ही। अतएव यदि किंचित् विचार करके देखें तो आख्यान-चरित और कथाकाव्यों में कोई विशेष मौलिक अन्तर नहीं मिलता। इन सभी का मूलोद्देश्य कथा को रसमयी अभिव्यक्ति ही है।
डा० शम्भूनाथ सिंह चरितकाव्य को प्रबन्धकाव्य का हो एक विशेष रूप मानते हैं। उनका कथन है कि प्रबन्धकाव्य, कथाकाज्य और इतिवृत्तात्मक कथा ( पुराणकथा आदि ) के लक्षणों का समन्वय हुआ है इसीलिए प्रायः चरितकाव्यों ने अपने को कभी चरित, कभी कथा और कभी पुराण कहा है। चरितकाव्य को कुछ निजी विशेषताएं होती हैं जिससे वह पुराण, इतिहास और कथा से भिन्न एक विशेष प्रकार का प्रबन्धकाव्य माना जाता है । संस्कृत साहित्य में चार शैलियों-शास्त्रीय शैली, ऐतिहासिक शैली, पौराणिक शैली और रोमांसिक शैली में लिखे
१. डा० सत्यनारायण पांडेय, संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ०
२५८.
२. कादम्बरी, पूर्वार्द्ध, श्लोक २०. ३. डा० शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी महाकाव्यों का स्वरूप और विकास, पृ०
२८६-८७.