Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 189
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० ज्ञानीना मनमा का आनंद थत्तो नथी, ते बिचारा चारगतिमा पुनः पुनः परिभ्रमण करशे मुह संसारमा दरेक वस्तुथी बंधाय छे, रागद्वेषनो क्षय ते करी शकतो,नथी, उपरथी शांत कदापि देखाय, तो पण ते शांत नथी कारणके तेनु शान्तपणुं अज्ञाने करी छे, खरी शांतावस्था ज्ञानी पामे छे. मुक्ति पण तेनाथी वेगळी नथी, माटे ज्ञानीनी भक्ति सेवा करवी, तेमनुं बहुमान करवं. तेमनी निंदा करनार नरक निगोदमां रझळे छे, ज्ञान पाम्या बाद निंदादि सकळ दोषनो संक्षय थाय छे, अने शास्वत अनंत सुखमय शिवस्थानभाक् आत्मा थाय छे. ए शोळमा दुहानो भावार्थ. दुहा. ग्रहण योग्यछे आत्मधर्म, त्याज्य योग्यछे कर्म ॥ ज्ञानध्यानविवेकथी, प्रगटे शाश्वत शर्म ॥१७॥ शुद्ध स्वभावे. रमणता, करतां होवे मुक्ति ॥ परभावे संसार छे, एहिज साची युक्ति ॥१८॥ योगमांही द्रव्यानुयोग, आत्म अति हितकार॥ परमार्थ ग्रही भव्यात्मा, पामे भवजल पार ॥१९॥ आत्म निहाळे आत्मने, तो शिव सुखनी आश॥ परमां बुद्धि स्वात्मनी, थातां पुद्गलदास ॥२०॥ परभावे रमतां थकां, परनी वृद्धि थाय ॥ For Private And Personal Use Only

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