Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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ज्यां होय छे, त्यां मिथ्यात्वनो उदय थइ शके, व्यवहारिक कार्यमां पण पक्षपात करवो युक्त नथी.
विवेक-आत्मसाधक महापुरुषोए धर्म प्रासादारोहण करवा माटे विवेक नामनुं चौदमुं पगथीयुं आदर, वस्तुनुं यथार्थस्वरुप जाणवू, तनुं नाम विवेक छे सत्यने सत्य तरीके जाणबुं तेनुं नाम विवेक छे; असत्यने असत्य तरीके जाणवू, धर्मने धर्म तरीके जाणवो, अधर्मने अधर्म तरीके जाणवो, जीवने जीव तरीके जाणवो, अजीव तत्वने अजीव तरीके जाणवो, तेनुं नाम विवेक छे. ज्ञान विना विवेक प्रगट थतो नथी, माटे ज्ञाननी प्राप्ति करवा सद्ग्रंथो पुनः पुनः वांचवा, ते सद्ग्रंथोनुं मनन करवू, वांचेला विषयने वारंवार याद करवो, तेमांथी परमार्थ शोधq के, हुं सर्व ग्रंथो वांचं छं तेमांथी मारे शो सार ग्रहण करवा योग्य छ, आदरवा योग्य शुं छे, त्याग करवा योग्य शुं छे, तेनो विचार करवो, नवरसना ग्रंथो या बीजां कोक शास्त्र विगेरे ग्रंथो वांचवा लायक नथी; वा युद्ध थएलां होयतेवा ग्रंथो वांचवाथी कंइ आत्महित थतुं नथी. एवा ग्रंथो वांचवा के जेथी वैराग्य प्रगटे, विनय प्रगटे, क्रोध शान्त थाय, मोहरुप मदिरानो नाश थाय, विषय वासनाओ टळी जाय, सर्व प्राणी उपर प्रेम प्रगटे, मारातारापणुं मटी जाय, अनादि. काळथी थती एवी जे अधर्म प्रवृत्ति तेनो रोध थाय, दया सागर आत्मा बने, वैर विरोध टळे, कर्म स्वरुष जाणामां आवे, द्रव्य गुण पर्यायनी खबर पडे, आत्मामा रहेला अनंत
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