Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 218
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०९ वी नहीं. चारित्र आदरीने घणा भव्यजीवो मुक्ति पद पाम्या छे, चारित्र संवररूप छे, अनेक जीवोनी हिंसा करनारा पणा चारित्र ग्रहण करी मुखी थया छे, क्रियाथी कर्मनो नाश थाय छे, फक्त एकला ज्ञानथी कंइ मुक्ति मळती नथी. शैलेशी अवस्थाए पण संवररूप चारित्रनी स्थितिछे, माटे मोक्षसाधक चारित्र क्रिया जाणवी. यतः कियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतं । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥१॥ क्रिया विना एकटं ज्ञान फल दायक नथी, धर्म ध्यान ध्याव, ते पण एक चारित्रनी क्रिया छ. क्रिया बे प्रकारनी छे. १ बाह्य क्रिया २ अंतरक्रिया, शरीरादिकथी थती जे चेष्टा वंदन नमस्कार ते आदि बाह्य क्रिया, अने मनमां थतुं एवं जे धर्मध्यान, ते अंतरक्रिया जाणवी.प्रसन्नचंद्र राजर्षिए दुनिरूप क्रियाथी सातमी नरक योग्य दलीयां ग्रहण कर्या, अने धर्मध्यान रूप संवर क्रियाथी सर्व कर्मक्षय करी कैवल्य ज्ञान प्राप्त कयु. बाह्य क्रिया करतां अंतरक्रियातुं प्राबल्य विशेषछे, तंदुलीयोमत्स्य मनमां अशुभ चिंतववा वडे करी अशुभअंतरक्रियामां प्रवर्तवाथी सातमी नरके जाय छे, नंदुलीयोमत्स्य मोटा मस्यनी पापणमां उद्भवे छे, मोटो मत्स्य ज्यारे नानां माछलांने पोताना मुखमां ग्रहण करेछे, त्यारे नानां माछलां For Private And Personal Use Only

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