Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 224
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१५ तप जप क्रिया खपथकी, अष्टकर्म न विलाय ते सहु आत्मध्यानथी, क्षिणमे खेरु थाय ॥ ६ ॥ उपादेय छे आतमा, ध्यावो गावो एह । परम महोदयमुक्तिपद, भोक्ता आतम तेह ॥७॥ वळी शरीरे रोग आदि उत्पन्न थाय ते वखते एम चिंतवयु केव्याधिस्तुदति शरीरं नमाममूर्तीवशुद्धबोधमयं । अमिर्दहति कुटीरं नकुटीराकाशमासक्तं ॥१॥ टीका-व्याधिः शरीरं तुदति व्यथयति पीडयति मां न अमूत विशुद्ध बोधमयं पीडयति अग्निः कुटीरं दहति किंतु कुटीर आसक्तं .आकाशं न दहति. व्याधि शरीरने पीडे छे, किंतु अमूर्च विशुद्ध बोधमय एवा मने ते पीडा करती नथी. जेम अग्नि झुपडीने बाळे छे, पण झुपडी साथे लागेला आकाशने बाळतो नथी, तेम अमूर्त एवा मारा आत्माने पीडा करवा व्याधि समर्थ नथी. नैवात्मनो विकारः क्रोधादिः किंतु कर्म संबंधात् । स्फटिकमणेरिव रक्तत्वमाश्रितात् पुष्पतो रक्तात् १ क्रोधादिः आत्मनः विकारः नैव किंतु कमणः संबंधात् क्रोधादिविकारः भवेद् , रक्तात्पु . . . ' For Private And Personal Use Only

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