Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 237
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨૮ हीए, अने तेथी विपरीत जे मोहादिक कर्म अशुद्ध प्रवृत्ति, ते परभाव कहीय, तेनो विवेचन करवो, भिन्न करवो, अशुद्धतानो उच्छेद करवा; दोषनो त्याग करवो; अनादि संसार कर्ता पणा तथा भोक्तापणानो त्याग करीने आत्म स्वरुप कतीपणो भोक्तापणो प्रगट करवो, ते पांचमो अपादान कारक जाणवो. ६ सर्व पाय तेनो आधार आत्मा छे. आत्मा तथा आत्म पर्यायनो स्वस्वामीत्व संबंध छ; व्याप्य व्यापक संबंध छ; ग्राह्य ग्राहक संबध छ; आधाराधेय संबंध छे ए सर्वनो स्थान रुप क्षेत्र ते आत्मा छे. ते माटे आत्मा आधार छे ए आधारनामा छठो कारक कह्यो. ए षट् कारक मल्लेिजिन स्तवनमा श्री देवचंद्रजीए वर्णव्या छे ते प्रसंगथी अत्र लख्या छे. ___ ज्यां सुधी का परभाव कारक छे, त्यां सुधी कंइ साधकता नथी. आत्मतत्त्व कापणे थयाविना सर्व शुभ प्रवर्तन ते बालकनी चाल छे. ते माटे कारकचक्र बाधकताथी वारीने, साधकताने अवलंबीने, ते कारकचक्रने समारवो, स्वरुपानुयायि करवो, अने पोताना आत्माने कहेवुके, हे चेतन तुं परभावनो कर्ता तथा भोक्ता नथी; तुं तो संपूर्णानंद शुद्ध विलासी छे. तुं परभावमा रमी रहो छे, तथा परभावनो •भागी थयो छ ए तने घंटे नही, तारुं कार्य अनंतगुण परिणा For Private And Personal Use Only

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