Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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२३३ छे, अने राजी थाय छे, पण तेमां सत्यपणु कंइ नथी. तेम हे प्रभो! हुँ पण पुद्गलने चुंथवामां सुखनी बुद्धि राखी तेने सत्य मानतो, अने आत्माना सुखने असत्य मानतो, गांडानी पेठे विवेक दृष्टि रहित थयो छतो, संसारमा भटकुं छं. आत्मा स्वपर प्रकाशक दिनमणि समान छे. जेम दीवो पोताने अने परने प्रकाशे छे, तेम आत्मा पण पोताना अनंतमुणोनो प्रकाश करतो अन्य द्रव्योने पण ज्ञाने करी प्रकाशे छे, परद्रव्य नी अस्तिता आत्मद्रव्यमां नास्तिपणे छति छ, अने परद्रव्य निष्ठ नास्तिपणो आत्म द्रव्यमां अस्ति छता पणे रह्यो छे. आस्मामा रहेलं परतुं नास्तिपणुं परद्रव्यमां अस्ति छतापणे रडं छे. आत्मद्रव्यर्नु स्वक्षेत्र, स्वद्रव्य, स्वकाल, अने स्वभाव रुपे रहेखें अस्तिपणुं, धर्मास्तिकायादिक परद्रव्यमां नास्तिरूपे रहेखें छे. अनादि कालथी मिथ्यादृष्टि जीवने शरीर इंद्रिय विषय कषायरुप कार्य करतां अनंत काल गयो. ज्यारे सद्गुरु संयोगे सम्यग्दृष्टिगुण प्रगटयो, त्यारे ज्ञान दर्शन चारित्र ते पोतानो कार्य जाण्यो. पश्चात् तत् पद सिद्धिने माटे श्रमणधर्म अगर श्रावकधर्म अंगीकार करी जीव स्वात्महित करवा लाग्यो, अंते साध्यदृष्टियी साध्यनी सिद्धि थाय, आत्माना अनंत गुणो स्वस्वभावे रमणता करतां छतां प्रगटभावे थाय छे. ज्ञान, दर्शन, चरित्र, वीर्य, अव्याबाध
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