Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 245
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुख दुःखनो उपभोग प्राप्त थतो नथी. कारणके, विनाश अने उत्पत्ति विनानुं जे एक स्थिररुपपणुं, ते नित्यनु लक्षण छे. तेथी आत्मा ज्यारे सुख अनुभवीने पोताना कारणोना समूहनी सामग्री वशी दुःख भोगवे छे, त्यारे स्वभाव भेदथी अनित्यपणानी आपत्ति वडे स्थिरैकरुपता हानि प्रसंग आवे छे. एवीज रीते दुःखने अनुभवी सुख भोगवा पण थाय छे, एम जाणी लेवु. वळी एकान्त अनित्यवादमा पुण्य पाप पण घटी शकतां नथी. केमके तेओनी अर्थ क्रिया सुख दुःखनो उपभोग छे. वळी जे अनित्य छे, ते तो क्षणमात्र रहेनारुं छे. अने ते क्षणे तो मात्र उत्पत्तिमांज व्यग्र होवाथी तेने पुण्य पापना उपादान रुप क्रियानुं मेलववा पणुं क्यांर्थाज होय ? वळी पुण्यपापना उपादान रुप क्रियानो ज्यारे अभाव थयो, त्यारे मूळ विना पुण्यपाप क्याथी होय ? बंध मोक्षनो पण असंभव छे जे बंधाय ते मूकाय छे, आत्माने अनित्य मानतां, एकांतपणाथी बंध अने मोक्ष पण घटी शकतां नथी. नित्यानित्य आत्माने मानतां सर्व घटी शके छे. तेनो विशेष अधिकार न्यायना ग्रंथोथी वांची वा सद्गुरुद्वारा सांभळी खुलासो करवो. भेदाभेद आत्म स्वरुप छे तेनुं स्वरुप गीतार्थ समक्ष विनय पूर्वक समज. सारमांसार एज छेके आत्मा स्याद्वादवाद समजी, सत्यतत्त्व श्रद्धा करी, चरण आदरी, कर्मक्षय करी, शाश्वत For Private And Personal Use Only

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