Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ संसारी पुद्गलमा राच्यो माग्यो छतो कमने ब्रहण करई. सिद्ध परमात्मानी हुं सजातीय छु. मधुताए करी सपना समान छ, पण मारा: गुणो कर्मनी वर्गणाओना योग सापामां तिरोभावे अस्तिपणे छ तेनो कदापि नाश थवानो नथी, यद्यपि हुँ संसारी छु, अने शुद्ध परिणति योगे परभावने स्वभाषनी बुद्धिथी ग्रहण करुंछ, पण मिमित्त योगे शुद्ध परिणतिभाक अंशे अंशे थतो.यको शुद्ध चैतन्य स्वरुप थइन. जेवू परमात्मान स्वरुप निर्मल छे, तेवं मारा आत्मानुं निर्मल ज्ञानानंद स्वरुप करवानुं कारण श्री परमात्मा छे. माटे मारे अरिहंतादिकनुं मोटुं अवलंबन छे. मारा आत्मानी प्रभुता हे प्रभु तमारामां प्रगटपणे वर्ते छे ते कोइ काले नाश थनार नथी. अखंड अभंगपणे प्रभुनी प्रभुता स्पष्टपणे वर्ते छे. हे प्रभो ! असंख्यात प्रदेशरुप क्षेत्रना अधिपति स्वतंत्र तमे थया. आत्माना एकेक प्रदेशे ज्ञान दर्शन चारित्रादिकनी अनंति रिद्धि अशुद्ध परिणति योगे तिराभावे हती, ते अनंति रिद्धि स्वभाधे रमी, रे प्रभो ! तमोए आविर्भावरूपे प्रगटकरी, तेना अधिपति. थया. अनंतगुण अनंतपर्यायना अधिपति हे प्रभो! तमे थया, मारे ए सर्व ऋद्धि तिरोभावे पर्ने छे. अमे कर्मजोरे घडीवार पण शुद्धात्म स्वरूपमा लक्ष देतो नथी, लाकहानी धावने जेम नामु छोकरूं खरी धाइनी बुद्धिधी धावे For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249