Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 238
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिक रुप भोक्तापणे छे, माटे हे आत्मा तुं यथार्थ जिनवाणी रूप अमृतपान करीने, अनादि विभावरुप विष वारीने सचिदानंद स्वरूप तेने विषे रमणता कर. पहेलो शुद्धपणे निष्पन आत्मना ज्ञानादिक पर्यायनो जाणवा देखवा रुप कार्यनो प्रवर्तन उत्पाद व्ययरुप परिणमन, ते कार्यनो की आत्मा छे. बीजो आत्म गुणनो परिणमन ते कार्य; बीजो आत्मगुण ज्ञानादिक ते करण; चोथो आत्म गुणनो लाभ ते संप्रदान, पांचमी परभाव त्याग परिणति ते अपादान; छठो अनंतगुणनो राखवो ते आधार ए छ कारक नो चक्र ते सिद्धावस्थाने विषे सदा स्वाधीनपणे फरी रह्यो छे. ए छकारक समजीने आत्मानुं स्वरुप ध्यावे, परभावनो त्याग करे, अने मनमां विचारेके. अहम्मिको खलु सुद्धो निम्ममो नाणदंसण समग्गा। तम्मिठिओ तचित्तो सब्वे एए खयं नेमि ॥१॥ अहं-हुँ आत्मा अनंत गुण पर्याय रुप, अनंत स्वधर्ममयी तथा समुदायपणे एक छ, वळी निश्चयनयथी जोतां हुँ शुद्ध छ, जेवा सिद्ध परमात्मा स्वस्वरुपे करी शुद्ध छे तेवो हुं सत्ताएं शुद्ध हुँ, ममती रहित छ, परवस्तु "मारी नथी, हुं . . For Private And Personal Use Only

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