Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 223
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ક देह. गेह भाडातो, ते आपणो नाहि । तुज गृह आतमज्ञान ए, तिणमांहे समाहि ॥२॥ ज्यां लगें तुज इण देहथी छे पूरव संग । त्यां लगे कोडि उपायथी नवि थाए ते भंग ॥३॥ तुं अजरामर आतमा, अविचल गुण मणि खाण | क्षणभंगुर आ देहथी, तुज किहां पिछाण ॥ ४॥ रे जीव साहस आदरो ( श्री देवचंद्रजीए ) आ प्रमाणे पंच भावनानी सझायोमां मुनिनी दशा वर्णवी छे. शत्रु मित्रता सर्वथी, पामी वार अनंत । कुंण सज्जन दुश्मन किस्युं, काले सहुनो अंत १. आव्यो पण तुं एकलो जाए पण तुं एक । तोए सकल कुटुंबथी, प्रीति कीसी अविवेक २ परसंयोगे बंधछे, पर वियोगथी मोरक । परसंयोगने त्यागीने, कर निज आतमपोष ॥ ३ ॥ एक आतमा माहरो, नाणदर्शन गुणवंत । बाह्ययोग सहु अवरछे, पाम्या वार अनंत || ४ || बंध अबंध ए आतमा, कर्त्ता अकर्त्ता एह । एह भोगता अभोगता, स्यादवाद गुण गेह ॥५॥ For Private And Personal Use Only

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