Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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२०५
तानो दिवस विवेकी गुमावतो नथी. विवेकी थोडामां बहु लाम मेळवे छे, विवेकी बाह्य दृष्टिनो परित्याग करे छे, अने अंतरधि थाय छे, विवेकी बहिरात्मभावनो त्याग करी परमात्म सत्ता ध्यावे छे, विवेकी पुरुषज खरो आत्मसाधक महापुरुष बने छे. ए.विवेकरुप चउदमुं पगथी\ मोक्षाभिलाषिओ माटे छे.
धर्म प्रासादारोहणने माटे आत्मसाधक महापुरुषोए सं. यमनुं ग्रहण करवू. ए पंदरमुं परथीयुं जाणवू, निकाचीत कर्म पण चारित्र ग्रहण करवाथी छूटे छे, चोवीस तीर्थकर महाराजाओए पण अंते ग्रहस्थावास त्याग करी चारित्र ग्रहण कर्यु, पुंडरीक गणधरे पण चारित्र ग्रहण कयु, अणुत्तरोववाइ सूत्रमा घणा कुमारी राज्य ऋद्धि संसारनी मोहमाया त्यागीने, चारित्र अंगीकार करी देवलोकनां सुख पाम्या, एवो अधिकार छे. घणा राजाओए दीक्षा लेइ आत्महित साध्यु, सर्व विरतिचारित्र छठा गुणठाणे छे. पंचमहाव्रत तथा छटुं रात्री भोजन विरमणव्रत ग्रहण करवां पडे छे, दूषमकाळ योगे आ भरत क्षेत्रमा घणा मतधारीयो साधु कहेवरावीते स्वार्थ लंपटीओ बनी सत्य मार्गनो सत्यानाश करी अंड वंड बनी पोतानायां साधुपणुं मनावे छे, पण ते योग्य नथी. घणा भव्य जीवो हाल पण वीतराग आज्ञा पूर्वक चारित्र पाळे छे, अने आत्मस्वभावे रमे छे, चरण सित्तरि अने करण सित्तरि युक्त संयम मार्गमा प्रवर्ते छे. दुप्पसहसूरि सुधी. श्री वीरभगवंतर्नु अविच्छिन्न शासन चालशे माटे, चारित्रमा कोइए शंका कर.
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