Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 219
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्छ्वास योगे बाहिर नीकळी जाय छे, त्यारे तंदुळीयोमत्स्य चिंतवेछेके, अरे जो हु आ मत्स्यने ठेकाणे होउं तो, एक पण माछलु मुखमांथी नीकळवा पामे नहीं; एम मननी अशुभ क्रियाथी अशुभ कर्म ग्रहण करी सातमी नरके जायछे. ए अशुभ अंतरक्रिया- एटटुं प्रावल्यछे, जो के तंदुलीया मत्स्ये बाह्य क्रिया करी नथी, पण तेना मनना परिणाम अशुभ छे, तेथी तेने कर्म बंध थाय छे, अंतरंग संवररूप चारित्र क्रियाथी भवोभवनां संचित कर्म तत्क्षण नाश पामीशके छे. श्री भरतराजाए अन्यत्वादि भावना वडे करी संवरक्रिया आदरी कैवल्यज्ञान प्राप्त कर्यु, ते पण एक जातनी क्रिया छे. आथी एम समजवू नहीं के बाह्यक्रिया नकामी छे. बाह्यक्रिया अंतरंग चारित्ररुपक्रियाने उत्पन्न करनारी छे. माटे तेनो आदर करवो योग्य छ, निषेध करवो योग्य नथी. व्याख्यान सांभळवा आवतां पगे करी चालवू ते आदि बाह्य क्रिया करी जीव सद्गुरु महाराजनी पासे आवी सदुपदेश सांभळी वैराग्य पामेछे, अने धर्मध्याननो ध्याता बने छे. कहो के ते धर्मध्यानरुप जे क्रिया ते गुरुमहाराजनी पासे न आव्यो होत तो बनी शकत नहीं, माटे निषेध करवो नहीं. क्रिया फलदायक छे. पण ज्ञान पूर्वक क्रिया होयतो ते आत्माने हितकारक छे. यतः ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ज्ञान अने क्रियाथी मोक्षनी प्राप्ति छे. प्रथम ज्ञान अने त्यार बाद क्रिया करवी योग्य छे. For Private And Personal Use Only

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