Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 200
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९१ फायदा थाय छे. गंभीर गुणनो महिमा चिन्ता मणिरत्न समान छे, गंभीर गुणी मनुष्य ज्यां जाय छे त्यां मान पामे छ, अने तेना हृदयमां धर्म रत्न वसे छे. ' आत्मसाधक बनवानुं त्रीजु पगथीयुं एछे के वैर बुद्धिमो त्याग करवो. धर्मरुप वृक्षने बाळवामां वैर बुद्धि दावानळ समान छे, सर्व जीव सिद्ध समान छे. आत्माना मुलस्वभाव वैर बुद्धि धारण करवानो नथी, तो केम अन्य प्रति द्वेष बुद्धि धारण करवी जोइए? अबलत नहीं करवी जोइए. आत्म साधक बनवानुं चो) पगीयु ए छे के-जेनी पासेथी धर्मतत्त्व पामीए, एवा त्यागी गुरु महाराजनुं वचन पाळq. गुरु तो माथे एक करवा, ठेर ठेर भटकी, फलाणा साधु सारा फलाणा साधु केवा हशे ? एम करी भटकवाथी कोइ सत्य तत्त्व आपतुं नथी. पक्की श्रद्धा राखी एक गुरु महाराजनुं सेवन करवू, अने पुनः पुनः सद्गुरुने मंगलरुप जाणी स्मरण करवू, तेमनो विरह थतां तेमने कथन करेला उपदेशामृतथी हृदयकमळने प्रफुल्लित कर. आत्मसाधक महापुरुषर्नु, पांचमु पगथीयु ए छे केस्वधर्मी राग. पोताना समान धर्मी मनुष्यो उपर भक्ति द्रष्टिथी जोवू, अने तेमने साहाय्य आपवी; ते दुःखी अवस्थामा होय तो हरेक प्रकारे दुःखमांथी बचाववा प्रयत्न करवो. आपणा स्वधर्मीओनी तन मन धनथी उन्नति इच्छवी. आ गुण आवनां खरा आत्मसाधक बनी शकाशे. आपणे सारं सारं जमीए बाय बगीचामां. लहेर करीए, गाडीमा बेशीए, अने आपणा For Private And Personal Use Only

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