Book Title: Anubhav Panchvinshtika Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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१९८
चनी पेठे जाणी मनमांथी तेने दूर काढे छे, क्षणमां क्षण थती मननी चंचलताना भणी उपयोग देछे, मनमां हाल शुं चिंतन थाय छे, हाल मन कया विषय प्रतिगमन करे छे, ते उपयोग द्वारा निहाळे छे जे जे कार्य करे छे तेमां मननी स्थिर वृत्ति करे छे, धामधूममां धर्म समजीने केटलाक मनुष्यो ते कार्यनो यथायोग्य भावार्थ जाण्या विना चंचलताथी कार्य कर्या करे छे, ते मनुष्यो इष्ट कार्यनी निष्फलतामां स्वकाल निर्गमन करे छे, अने मनुष्य भवनी साफल्यतानो कलंकित करे छे.
सत्संगति - सत् पुरुषोनी संगति करवी; सत्पुरुष स्पर्श - मणि सरखा छे, दुर्जनोनी प्रकृति सुधारनार सत्संगति छे, लाखो गमे पापोने निवारनार सत्संगति छे. सत्संगमथी जेटलं आत्महित थाय छे, तेटलं बीजा कशाथी थतुं नथी. चंड कौशिकसर्प पण श्रीमन् महावीरस्वामीनी सत् संगति पामी सद्गुण सेवनार थयो. गौतमादि ब्राह्मण शास्त्रार्थ करवा श्रीवीर प्रभु पासे आव्या, त्यारे पोतानो अभिमान टळ्यो, अने निरभिमानता प्रगट थइ, अर्जुनमाळी सरखा जीवो. पण परमतारक श्रीमन् महावीरना उपदेशामृतथी गुणी बन्या, लोकोए करेली निंदा अवगणना सहन करी, तेपण सत्संगतिनुं फळ छे, सत्संगतिनो महिमा अपार छे, मुखथी कह्यो जाय तेम नथी. माटे भव्योए व्यभिचारि, लुच्चा, निंदक मत्सरी, चोर, ठगारा विगेरेनी कुसंगति त्यागी जेनी पासे रहेवाथी सद्धर्मनी प्राप्ति थाय, सद्गुणो आवे, तेवानी संगति
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