Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ 10 अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 9. जीवात्मा के विकास में सबसे बड़ा बाधक कारण मोह कर्म है जो अनन्तदोषों का घर है। मोह के मुख्य दो भेद हैं- एक दर्शनमोह, जिसे मिथ्यात्व भी कहते हैं; दूसरा चारित्रमोह, जो सदाचार में प्रवृत्ति नहीं होने देता। 10. प्रत्येक वस्तु में अनेकानेक धर्म होते हैं, जो पारस्परिक अपेक्षा को लिये हुए अविरोध रूप से रहते हैं और इसी से वस्तु का वस्तुत्व बना रहता है। 11. बाह्य और आभ्यन्तर अथवा उपादान और निमित्त दोनों कारणों के मिलने से ही कार्य की निष्पत्ति होती है। 12. मन-वचन-काय-संबंधी जिस क्रिया की प्रवृत्ति या निवृत्ति से आत्म-विकास सधता है उसके लिये तदनुरूप जो भी पुरुषार्थ किया जाता है उसे 'कर्मयोग' कहते हैं। 13. सद्बोध- पूर्वक जो आचरण है वह सच्चारित्र है अथवा ज्ञानयोगी के कर्माऽऽदान की निमित्तभूत जो क्रियाएँ उनका त्याग 'सम्यक्चारित्र' है और उसका लक्ष्य राग-द्वेष की निवृत्ति है। 14. अपने राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषों को शान्त करने से ही आत्मा में शान्ति की व्यवस्था और प्रतिष्ठा होती है। 15. विचार दोष को मिटाने वाला 'अनेकान्त' और आचारदोष को दूर करने वाली 'अहिंसा' है। 16. अनेकान्त और अहिंसा का आश्रय लेने से ही विश्व में शान्ति हो सकती है। अनेकान्त - शासन ही अशेष धर्मों का आश्रयभूत होने में 'सर्वोदयतीर्थ' है। 17. आत्मपरिणाम के घातक होने से झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब हिंसा के ही रूप हैं। 18. धन-धान्यादि सम्पत्ति के रूप में जो भी सांसारिक विभूति है वह सब 'बाह्य परिग्रह' है। 19. ' आभ्यन्तर परिग्रह' दर्शनमोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, - लोभ, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा के रूप में है। 20. समाधि की सिद्धि के लिये बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग आवश्यक है। ******

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