Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 सर्वसाधारण को इस तीर्थ के माहात्म्य का पूरा-पूरा परिचय कराया जाय । स्वामी समन्तभद्र ने अपने समय में, जिसे आज 1800 वर्ष के लगभग हो गये हैं, ऐसा ही किया है; और इसी से कन्नड़ी भाषा के एक प्राचीन शिलालेख में यह उल्लेख मिलता है कि 'स्वामी समन्तभद्र भगवान् महावीर के तीर्थ की हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदय को प्राप्त हुए'- अर्थात् उन्होंने उसके प्रभाव को देश-देशांतरों में व्याप्त कर दिया था। आज भी वैसा ही होना चाहिये। यही भगवान् महावीर की सच्ची उपासना, सच्ची भक्ति और उनकी सच्ची जयन्ती मनाना होगा। भगवान महावीर के तीर्थ - शासन में सर्वोदय के जिन मूल सूत्रों का प्रतिपादन हुआ है कुछ मूल-सूत्र इस प्रकार हैं :1. प्रत्येक जीव स्वभाव से अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियों का आधार अथवा पिंड है। 2. कर्ममल के कारण जीवों का असली स्वभाव आच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित हैं और वे परतंत्र हुए नाना प्रकार की पर्यायें धारण करते हुए नजर आते हैं। 3. जीव की इस कर्ममल से मलिनावस्था को 'विभाव परिणति' कहते हैं। 4. जब तक किसी जीव की यह विभावपरिणति बनी रहती है तब तक वह ‘संसारी' कहलाता है और तभी तक उसे संसार में कर्मानुसार नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है। 5. जो जीव अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूप से ही उनके पूज्य एवं आराध्य हैं जो अविकसित या अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्म-गुणों का विकास सबके लिये इष्ट है। 6. संसारी जीवों का हित इसी में है कि अपनी राग-द्वेष-काम-क्रोधादि रूप विभावपरिणति को छोड़कर स्वभाव में स्थिर होने रूप 'सिद्धि' को प्राप्त करने का यत्न करें। 7. सिद्धि ‘स्वात्मोपलब्धि' को कहते है । उसकी प्राप्ति के लिये आत्मगुणों का परिचय, गुणों में वर्द्धमान अनुराग और विकास मार्ग की दृढ़ श्रद्धा चाहिये। 8. बिना भाव के पूजा दानजपादिक उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार कि बकरी के गले में लटकते हुए स्तन । -

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