Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 होने के उपयुक्त ही है। बिना ऐसे गुणों की सम्पत्ति से युक्त हुए कोई सच्चे धर्मतीर्थ का प्रवर्तक हो ही नहीं सकता। यही वजह है कि जो ज्ञानादि शक्तियों से हीन होकर राग-द्वेषादि से अभिभूत एवं आकुलित रहे हैं उनके द्वारा सर्वथा एकान्तशासनों - मिथ्यादर्शनों का ही प्रणयन हुआ है, जो जगत में अनेक भूल-भ्रांतियों एवं दृष्टिविकारों को जन्म देकर दुःखों के जाल को विस्तृत करने में प्रधान कारण बने हैं। जो सब गुण-धर्मों को पहचानता है- वह वस्तु को पूर्ण तथा यथार्थ रूप में देखता है, उसकी दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है और वह अनेकान्तदृष्टि ही सती अथवा सम्यग्दृष्टि कहलाती है और यही संसार में वैर - विरोधको मिटाकर सुख-शांति की स्थापना करने में समर्थ है। इसी से श्रीअमृतचन्द्रचार्य ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में अनेकान्त को विरोध का मंथन करने वाला कहकर उसे नमस्कार किया है और श्रीसिद्धसेनाचार्य ने 'सम्मइसुत्तं' में यह बतलाते हुए कि 'अनेकान्त के बिना लोक का कोई भी व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता, उसे लोक का अद्वितीय गुरु कहकर नमस्कार किया है। 7 महावीर की ओर से इस धर्मतीर्थ का द्वार सबके लिये खुला हुआ है, जिसकी सूचक अगणित कथाएँ जैनशास्त्रों में पाई जाती है और जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पतित से पतित प्राणियों ने भी इस धर्म का आश्रय लेकर अपना उद्धार और कल्याण किया है। कुछ जैन-ग्रन्थों के प्रमाण स्वरूप-कथन वाक्य निम्नांकित है: 1. मन, वचन तथा काय से किये जाने वाले धर्म का अनुष्ठान करने के लिये सभी जीव अधिकारी हैं। ( यशस्तितिलक) 2. ‘जिनेन्द्र का यह धर्म प्रायः ऊँच और नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्यों के आश्रित है। एक स्तम्भ के आधार पर जैसे मंदिर-मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊँच-नीच में किसी एक ही प्रकार के मनुष्य समूह के आधार पर धर्म ठहरा हुआ नहीं है- वास्तव में धर्म धार्मिकों के आश्रित होता है, भले ही उनमें ज्ञान, धन, मान-प्रतिष्ठा, कुल - जाति, आज्ञा-ऐश्वर्य शरीर, बल, उत्पत्ति स्थान और आचार-विचारादि की दृष्टि से कोई ऊँचा और कोई नीचा हो । ' (यशस्तिलक) 3. मद्य-मांसादि के त्यागरूप आचार की निर्दोषता, गृहपात्रादिकी पवित्रता

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