Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ 6 अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 उसकी प्रवृत्ति में निमित्तभूत जो आगम अथवा आप्तवाक्य है वही यहाँ 'तीर्थ' शब्द के द्वारा परिग्रहीत हैं और इसलिये इन तीनों शब्दों के सामायिक योग से बने हुए 'सर्वोदयतीर्थ' पद का फलितार्थ यह है किजो आगमवाक्य जीवात्मा के पूर्ण उदय - उत्कर्ष अथवा विकास में तथा सब जीवों के उदयउत्कर्ष अथवा विकास में सहायक है वह 'सर्वोदयतीर्थ' है। आत्मा का उदय - उत्कर्ष अथवा उसके ज्ञान-दर्शन-सुखादिक स्वाभाविक गुणों का ही उदय उत्कर्ष अथवा विकास है और गुणों का वह उदय उत्कर्ष अथवा विकास, दोषों के अस्त-अपकर्ष अथवा विनाश के बिना नहीं होता । अतः सर्वोदयतीर्थ जहाँ ज्ञानादि गुणों के विकास में सहायक है वहाँ अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारण ज्ञानावरणादिक कर्मों के विनाश में भी सहायक है - वह उन सब रुकावटों को दूर करने की व्यवस्था करता है जो किसी के विकास में बाधा डालती है। तीर्थ को सर्वोदय का निमित्त कारण बतलाया गया है। तब उसका उपादान कारण कौन है? उपादान कारण वे सम्यग्दर्शनादि आत्म गुण ही है जो तीर्थ का निमित्त पाकर मिथ्यादर्शनादि के दूर होने पर स्वयं विकास को प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से 'सर्वोदयतीर्थ' का एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है और वह यह कि 'समस्त अभ्युदय कारणों कासम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक्चारित्र रूप त्रिरत्न - धर्मो का जो हेतु है- उनकी उत्पत्ति अभिवृद्धि आदि में ( सहायक ) निमित्त कारण है - वह 'सर्वोदयतीर्थ' है । इस दृष्टि से ही, कारण में कार्य का उपचार करके इस तीर्थ को धर्मतीर्थ कहा जाता है और इसी दृष्टि से वीरजिनेन्द्र को धर्मतीर्थ का कर्ता (प्रवर्तक) लिखा है; जैसा कि 9वीं शताब्दी की बनी हुई 'जयधवला' नाम की सिद्धान्त टीका में उदधृत निम्न प्राचीन गाथा से प्रकट है निस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो । राग-दोस - भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥ इस गाथा में वीर - जिन को जो 'निःसंशयकर' - संसारी प्राणियों के सन्देहों को दूर कर उन्हें सन्देह रहित करने वाला - 'महावीर ' - ज्ञान - वचनादि की सातिशय-शक्ति से संपन्न - 'जिनोत्तम' - जितेन्द्रियों तथा कर्मजेताओं में श्रेष्ठ - और 'रागद्वेष-भय से रहित' बतलाया है वह उनके धर्मतीर्थ-प्रवर्तक

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