Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ पाश्र्वनाथ विषयक प्राकृत-अपभ्रंश रचनाएँ तेजपाल का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम ताल्हुच का ग्रन्थभण्डार है। उसमें जो इस ग्रन्थ की प्रति है उसमें था। तेजपाल ने ग्रन्थ के प्रेरणादायक घूधनु साहु (सुरजन कुल १०१ पत्र है । अतिम १०२वा पत्र नहीं है। प्रति में ग्रन्थ साइ) के परिवार का भी विस्तृत परिचय दिया है। की रचना का समय वि०सं० १५१५ अकित है।" ग्रन्थ की सुरजन साहु की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है- दूसरी पाण्डुलिपि आमेरशास्त्र भण्डार के कलेक्शन में है। णामें सुरजण साहु दयावरु, लंबकंचु जणमण-तोमायरु । पार्श्वनाथ के जीवन के सम्बन्ध मे विभिन्न भाषाओं धणसिरि रमणि सुहणेहासिय णिय जस पसरदि के ग्रन्थों से जो जानकारी मिलती है, उसकी प्रामाणिकता सुरमुह-बासिय ॥ -अतिम सधि ३६ घत्ता के लिए एवं तुलना मक अध्ययन के लिए प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थ के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए के इन अप्रकाशित ग्रन्थों का विशेष महत्त्व है। पार्श्वनाथ कवि कहता है देवेन्द्र आदि के द्वारा पूजित, इस जन्म- पूर्व भव, उपसर्ग, गृहस्थ जीवन एव विहार क्षेत्र के सम्बन्ध समुद्र को पार कर जाने वाला, कर्मरूपी शत्रुओं का मे जो विखरी हुई सामग्री उपलब्ध है उसका अध्ययन इन नाशक, भय-हरण करने वाला, कल्याण करने में पटु एव अप्रकाशित ग्रन्थो के साथ करने पर किसी निश्चित ध्यान के द्वारा जिसने कर्म-समूह को जीत लिया है, उस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। पार्श्वनाथ के जीवन के पार्श्वनाथ के चरित को मैं कहूंगा अतिरिक्त १०वी से १६वी शताब्दी तक के भारतीय जीवन देखिदेहि णुप्रो वरो सियरो जन्मवुही-पारणो, के विभिन्न पक्ष भी इन ग्रन्थो के अध्ययन से उजागर हो कम्मारीण विइसणो भहरो कल्याण-मालायरो। सकते है । अतः पार्श्वनाथ से विशेष रूप से जड़े हए तीर्थझाणे जेण जिओ चिर अणहियो कम्पट्टपुट्ठासवो, म्थान, अतिशयक्षेत्र एव सस्थाओं का यह दायित्व है कि सोयं पासजिणिदु संघवरदो वोच्छ चरित्त तहो। वे पार्श्वनाथ सम्बन्धी इन अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाश इस पासणाहचरिउ की दो पाण्डुलिपियां उपलब्ध है। मे लाने का दृढ-संकल्प करे। प्राकृत-अपभ्रश के विद्वानों बड़े धड़े का दि. जैन मंदिर, अजमेर मे भट्टारक हर्षकीति को भी इस दिशा मे प्रयत्नशील होना चाहिए। सन्दर्भ-सूची १. (क) पार्श्वनाथचरित (वादिराजसूरि), माणिक चन्द्र १६२५, स. २७८ ग्रन्थमाला, वम्बई, सं० १६७३, ७. जिनरत्नकोश पृ०२७ (ख) सिरियासनाहचरिय (देवभद्रसूरि), अहमदाबाद, ५. शास्त्री, देवेन्द्रकुमार; अपभ्रश भाषा एवं साहित्य की १९४५, शोध प्रवृत्तिया, दिल्ली, १९७१, पृ० १४७ (ग) पासणाहचरिउ (पद्मकीर्ति), प्राकृत ग्रन्थ परिषद' ६. शास्त्री, परमानन्द; जैनग्रन्थ प्रशास्तिस ग्रह, भाग ३, वाराणसी, १९६५ पृ० ७७ २. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि; भगवान् पाव--एक समीक्षात्मक १०. जैन, राजाराम, वड्ढमाण चरिउ, दिल्ली, १९७५ अध्ययन, पूना, १९६६ ११. शास्त्री, देवेन्द्रकुमार, वही, पृ० १४६ ३. ब्लूमफील्ड; 'द लाइफ एण्ड स्टोरीज आफ द जैन १२. जैन, पी० सी०; 'जैन ग्रन्थ भण्डार इन जयपुर एण्ड सेवियर पार्श्वगा,' बाल्टीमोर १६१६ ज्ञान प्रकाशन; नागौर,' जयपुर. १९७८; पृ० १०४ दिल्ली द्वारा १९८५ मे पुर: मुद्रित । १३. (क) रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, ४. उमाकान्त, पी० शाह; आल इडिया ओरियन्टल वैशाली कान्फ्रेंस, वर्ष २०, भाग २ पृ० १४७; जैन सत्य- (ल) र इध-ग्रन्थावली भाग १, सोलापुर; मे यह प्रकाश, भाग १७, संख्या ४, १९५६ पासणाहुचरिउ प्रकाशित हो गया है। ५. चौधरी, गुलाबचन्द ; जैन साहित्य का बहत इतिहास, १४. कासलीवाल, के० सी०; राजस्थान के जैन ग्रन्थ भाग ६, पृ०७२ भण्डारो की सूची, ५ भागों में ६. बृहत् टिप्पणिका, जैन साहित्य संशोधक मण्डल, पूना, १५. शास्त्री, परमानन्द, वही, पृ० ८८ (प्रस्तावना)

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