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अनकान्त
प्रवचन किया करते थे। आध्यात्म ग्रन्थों की मरम ममाग्न हुई । इसके बाद किमी समय पण्डित चर्चाम उन्हें विशेष रम आता था। उस समय दौलतरामजी उदयपुर गए । उदयपुरम पण्डितर्ज अगामे माची भाइयोंकी एक शैली थी जिम जयपुरकं तत्कालीन गजा सवाई जयसिंह और उनके आध्यात्म शैलीक नामम उल्लेग्यित किया जाता था। पुत्र माधमिजार वकील अथवा मन्त्री थे और और जो मुमुक्षु जीवोंको तत्त्वचाढि मत्कार्योमे उनके मंरक्षणका काय भी आप ही किया करते थे। अपना प्रग योग देती थी। यह आयात्मशैली वहां उम ममय उदयपुरम गणा जगतमिह जी का राज्य विक्रमकी १७वीं शताब्दीम बगबर चली आरही थी था, उनकी पण्डितजी पर विशेष कृपादृष्टि रहनी उमीकी वजहम आगरावामी लोक-हृदयाम जैनवम थी। और व उन्हें अपन पाम ही में रग्बत थे। जैमा का प्रभाव अङ्कित होरहा था। उस समय इम शेली कि उनकी मं1585 मंचित 'अध्यात्म बारहखड़ी' में हमराज, महानन्द, अमरपाल, बिहारीलाल, की प्रशाम्त के निम्न पद्यों से प्रकट है:फतचन्द, चतुर्भुज और ऋपभदामक नाम वनवा का वासी यह अनुचर जय को जानि । वामनोरम उन्ले बनाय है। उनमें से अपभदामजीके उपदेशम पडिन दौलनरामजीको जनधम
मंत्री जयमुन का मही जानि महाजन जानि ।। की प्रतीनि हुई थी और वह मिथ्यात्वम हटकर
जय को गर्व गण पं रहे उदयपुर मांहि । मम्यक्त्वम्पमं परिणत हो गई थी। इमाम पडित जगतामह कृपा करे गग्वै अपने पाहि ॥ जीने भगवान ऋपभदेवका जयगान करते हुए उनके उसके अनिग्नि म० १६६५ में गंचन क्रियाकोप' दामको मुम्बी होनकी कामना व्यक्त की है। जैमा की प्रशस्तिमं भी वे अपने को जयमुनका मन्त्री और कि उनक. पुण्याम्रवकथाकोपटीका प्रशस्निगत "
जयका अनचर व्यक्त करते है। चूकि राणा निम्न दो पद्योम म्पष्ट है -
.पान मत्रहमा विदया। नापरि धरि मरि अरु मान । ऋपभदास के उपदेशमा हमें मई पग्नीन ।
भादर मान कृष्ण पग्य जानि तिथि पाच जाना परवानि ।।
विमुनका पहला दिन जोय, अरु मुरुगर के पीछ होय । मिथ्या मनको न्यागकै लगी धम्म मां प्रीत ॥ बार है गनि लीज्या मही, ना दिन ग्रन्थ ममापन मही॥२॥ ऋषभदेव जयवंत जग मुवी हाह नमुदाम ।। -पन १७ (वि.२० १७८६) में जयपर नरेश
सवाई जयन्मिहजी माधोमिह और उनकी माता चन्द्वक वरि जिन हमको जिनमन वि किया महा जुगदाम ॥ को लेकर उदयपुर गये हैं और उनक लिय 'गमपुग' का पंडित दौलनगमजीको आगग्मे गमचन्द्र मुमुन् प
परगना दिलाया गया है।—दम्वा राजपूनानका इनिहाय के पुण्याम्रव कथाकोप' नामके कथा ग्रन्थ को सुननका .
चतुर्थ वाइ।
इसमें मालूम होना है कि सवाई जयसिहजीने इमा अवसर मिला था और जिम मुनकर उन्हें अन्यत
ममय सन १७२६ (वि० सं०1७८६ ) मे पं.दालतगममुख हुआ, नथा उसकी भाषा टीका बनाइ। उक्त जीका भी उदयपुर रखा होगा, इससे पूर्व व जयपुर या कथाकोषकी यह भाषा टीका वि. मं. १७७७ में।
१० मा १७७७ म अन्यत्र रहकर राज्य कार्य करते होगे।
४-"पानन्द मुत जयमुनको मन्त्री, देखो पण्यानव-टीका-प्रशस्ति ।
जयको अनुचर जाहि कई ।"