Book Title: Anandghan ka Rahasyavaad
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 7
________________ रहस्यवाद : एक परिचय उवासगदसांग,' ठाणं आदि में भी 'रहस्य' शब्द व्यवहत हुआ है और उनमें इसका अर्थ गुप्त बात छिपी हुई बात, प्रच्छन्न, गोप्य, विजन, एकान्त, अकेला, गूढ़, ह्रस्व, अपवाद-स्थान आदि किया गया है । किन्तु 'रहस्य' शब्द का अर्थ केवल एकान्त, गोप्य या गुह्य विषय ही नहीं है, प्रत्युत इसका आध्यात्मिक क्षेत्र में एक विशेष अर्थ है और वह विशेष अर्थ भी हमे जैन साहित्य में मिलता है । ओघनिर्मुक्ति में 'रहस्य' शब्द का प्रयोग 'परमतत्त्व' के रूप में हुआ है । ओघनियुक्ति में 'परम रहस्य' शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि आध्यात्मिक विशुद्धि से युक्त ऋषियों द्वारा प्रणीत समस्त गणिपिटक (जैन आध्यात्मिक साहित्य) का सारतत्त्व 'आत्म-साक्षात्कार' है । यहो 'परम रहस्य' है । वृत्तिकार ने 'रहस्य' शब्द का अर्थ 'तत्त्व' भी किया है ।" इससे यह स्पष्ट होता है कि परमतत्त्व या आत्मतत्त्व ही 'रहस्य' है । स्वयं ग्रन्थकार ने भी स्पष्ट किया है कि रहस्यानुभूति आध्यात्मिक विशुद्धि से युक्त ज्ञानीजनों को ही प्राप्त होती है । यह आत्म-बोध या रहस्यानुभूति निश्चय अर्थात् सत्ता के शुद्ध स्वरूप के अवलम्बन से ही उपलब्ध होती है । निश्चय नय के आधार पर तत्त्व का साक्षात्कार करनेवाला ऐसा नियमों के परिपालन में सजग होता है । तात्त्विक अनुभूति गूढ़ होती है, किन्तु उसकी १. २. ३. ४. ५. उवासगदसांग, १।४६ । ठाणं, ३, ४ । ओघनियुक्ति, ७६० । जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहि समग्गस्स । सा होई निज्ज़र फला अज्झत्थ विसोहि जुत्तस्स ॥ परम रहस्स मिसीणं समत्तगणिपिडग झरित साराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंब माणाणं ॥ निच्छयमवलंबंता निच्छयओ निच्छयं अयाणंता । नासंति चरण करणं बाहिर करणालसा केइ ॥ ५ — ओघनिर्युक्ति, ७६०-६१-६२ । कि विशिष्टस्य ? -- विशुद्धभावस्येत्यर्थः । किञ्च - परमं प्रधानमिदं रहस्यं —- तत्त्वं, केषाम् 'ऋषीणां' सुविहितानां, किं विशिष्टानां ? समग्रं च तद् गणिपिटकं च समग्रगणिपिटकं तस्य क्षरितः सारस्तेषामिदं रहस्यं । - ओघनियुक्ति-द्रोणी वृत्ति ७६०-६२ ।

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