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परमा
वष२ )
। अधिवेशनाङ्क, अलीगंज (एटा) उ० प्र०
जून-जौलाई,
अंक ३-४
१६५२ ई०
करुणा की शान्त-स्निग्ध धारा!
( वीरेन्द्र प्रसाद जैन ) प्रति प्राणों की दुख-दुर्गति पर,
सच आता उमड़-घुमड़ जी भर, निर्मल अन्तस का यह प्रवाह, है हृदय-द्राव करुणा-धारा!
. करुणा की शान्त-स्निग्ध धारा! वह क्या मानस है मानस भी.
• जिसमें न दया का निर्भर भी, है सुखकर दया-भाव मानों, मानवता को मधुमय धारा !
करुणा की शान्त-स्निग्ध धारा! रे, मानव जीवन हो सस्मित, --- करुणा-वरुणा से परिपूरित, बहती हो मानव-मानस में, सौहार्द-स्नेह की मधु धारा!
करुणा की शात-स्निग्ध धारा!