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३४ . ॐ अहिंसा-वाणी ॐ स्वभाव को पायेगा और सुखी आवश्यकता मानवों और राष्ट्रों को होगा।
_ है ! पहले 'लीग आँव नेशस्स' था नैतिक दृष्टि से सभी मानवों के और आज 'संयुक्त राष्ट्रसंग' चारित्र संबंधी नियमों में मौलिक (U.N.0.) है, जो मानवों को एकता भी साधारणतया मिलती है। युद्ध से बचाकर उनके जन्मसिद्ध परमतत्व का स्पष्ट दर्शन, शुद्ध और अधिकारों के संरक्षण का दावा निरपेक्षा शंकाओं से रहित ज्ञान और करता हैं। किन्तु फिर भी आज के चरित्र नियम, जो किसी को कष्ट न मानव को कलके आने वाले भयङ्कर दें बल्कि सब के लिए हितकर हों- विनाश के आतंक में जीवन बिताना यही तथ्य हैं जिसको सभी लोग पड़ रहा है ! क्या शान्ति चरचायें शान्ति पाने के लिए आवश्यक नहीं होती ? नहीं, नहीं, ऐसी बातों मानते हैं। किन्तु दर्शन, ज्ञान और की कमी नहीं है-चरचा वार्ता तो चारित्र को अपने से वाह्य लोक की बहुत होती हैं। तो फिर यह असफवस्तुयं न समझ कर मानव पहिचाने लता क्यों? शान्ति क्यों नहीं होती ? कि वे उसकी आत्मा से अभिन्न हैं- इसका कारण यही है कि न तो मानवों
आत्मा के गुण हैं । वह उनको ने और न राष्ट्रों ने ही अनुभव किया अपने अनुभव में लावे । इस प्रकार है कि शान्ति कहीं बाहर नहीं, बल्कि यह मौलिक और यथार्थ आदर्श उनके भीतर-उनके स्वभाव का सभी मानवों के समक्ष मौजूद है ? ही एक अंग है । और उसे उन्हें प्राप्त यही वह सुदृढ़ सिद्धांत है जो मानव करना चाहिये-वे अन्तरदृष्टा नहीं एकता की अटूट आधार शिला है। हुए हैं। प्राचीन विश्व में बौद्धिक लोक में इस प्रसंग में जैनों का अनेकान्त इस सत्य का निरूपण इन उक्तियों सिद्धांत लोक को मार्ग सुझाने के में चरितार्थ किया गया थाः- लिए कार्यकारी सिद्ध होता है। मान __“Know Thyself.” (तू लीजिए एक मानव ने इन्द्रियजनित । अपने को जान)
भोगों को तिलाञ्जलि दे दी। इस अथवा
दशा में उसका चरित्र व्यवहार नय "आत्मानां सततं विद्धिः” से श्लाघ्य है। किन्तु वही मानव (आत्मा का अनुभव कर) कुछ ऊपर उठकर अपने हृदय से
और विश्व के इतिहास में भोगों की लालसा का बीज ही मिटा शायद ही ऐसा कोई समय आया दे तो उसका चारित्र और भी निखर हो जैसे कि आज इस सत्य को पहि- जाय । वह आत्मतत्व के निकट चानने और व्यवहार में लाने की पहुँचे-अतः निश्चयनय से भी