Book Title: Ahimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mission Aliganj

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Page 55
________________ * उत्तर भारत की जैन मूर्ति कला निर्माण ईसवी पूर्व ६०० के काफी पहले निष्पन्न हुआ होगा । ईसा की दूसरी शताब्दी में स्तूप का पुनर्निर्मित रूप जनता के समक्ष था, जिसके कला- -सौंदर्य पर मुग्ध होकर लोगों ने उसे 'देवनिर्मित' संज्ञा प्रदान की । 'रायपसेनिय सूत्र' नामक जैन ग्रन्थ में प्राचीन जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला से सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन मिलता है । इस ग्रन्थ में देव विमान तथा स्तूप का ऐसा जीताजागता वर्णन है कि लेखक की सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति के आगे नतमस्तक हो जाना पड़ता है । स्तूप के प्रकारों एवं उनके विभिन्न भागों का सूक्ष्म वर्णन मनोरंजक ढंग से इस ग्रन्थ में दिया है । उतर भारत में जैन कला के जितने प्राचीन केन्द्र थे उनमें मथुरा का स्थान अग्रगण्य है । सोलह शताब्दियों से ऊपर के दीर्घ काल में मथुरा में जैनधर्न का विकास होता रहा । यहाँ के चित्तीदार लाल, बलुए पत्थर की बनी हुई कई हजार जैन कलाकृतियाँ अब तक मथुरा और उसके आस-पास के जिलों से प्राप्त हो चुकीं हैं । इनमें तीर्थकार आदि प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौकोर आयागपट्ट, वेदिकास्तंभ, सूची, तोरण तथा दवारस्तंभ आदि हैं । मथुरा के जैन आयागपट्ट विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। इन पर प्रायः बीच में तीर्थंकर मूर्ति तथा उसके चारों ओर विविध 1 ४३ प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं। स्वस्तिक, नन्दयावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीनयुगुल इन अष्ट मंगल द्रव्यों का प्रयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण किया गया है। एक आयागपट्ट पर आठ दिकुंकुमारियाँ एक दूसरे का हाथ पकड़े हुये आकर्षक ढँग से मंडल नृत्य में संलग्न दिखाई गई हैं। मंडल या चक्रवाल अभिनय का उल्लेख रायपसेनिय सूत्र में भी मिलता है। एक दूसरे आयागपट्ट पर तोरणद्मर तथा वेदिका का अत्यंत में ये आयागपट्ट प्राचीन जैन कला सुन्दर न मिलता है । वास्तव के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, जिन पर लेकर ईसवी प्रथम शती के मध्य तक ब्राह्मीलिपि में लगभग ई० पू० १०० के लेख हैं । 1 मथुरा कला में तीर्थंकर तथा अन्य जैन प्रतिमाएँ एवं इमारती पत्थर सैकड़ों की संख्या में प्राप्त हुए हैं। शुंग काल से लेकर गुप्त काल तक का ऐसी मूल्यवान् जैन सामग्री भारत में अन्यत्र कहीं नहीं मिली । इस सामग्री के द्वारा विभिन्न युगों की वेषभूषा, आमोद-प्रमोद तथा अन्य सामाजिक पहुलओं पर पर्याप्त प्रकाश पड़ा है । कुषाण काल की मूर्तियों में बहुत सी अभिलिखित हैं । इन लेखों की लिपी ब्राह्मी है, तथा

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