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* अहिंसा-वाणी क्यों न दे ? आज की विषमता इस रात के ग्यारह बजे तक रहे ?' वह प्रकार व्रतनियमों का पालन करने हमारे तार को ठीक न समझे, यह से ही दूर हो सकती है उसका परि- अच्छा हुआ ! दिखावटी बातें चय मुझे एक अजैन वन्धु से मिला। जितनी कम हों उतना अच्छा ही है। . इन्दौर स्टेशन पर हम पहुँचे तो भाई ईश्वरचन्द जी भी आ गये। चारों ओर देखा-कौतूहल से और वे एक सेवा-भावी युवक हैं-उदीयजिज्ञासा से भी। माथा ठनका कि मान; उनका उच्च निर्मल भविष्य क्या मिशन केन्द्र में सेवा धर्म का उनके व्यक्तित्व में से झाँक रहा है। मूल्य नहीं आंका है ? यह बात हमारे डाँ० सा० इन युवकों की दिमाग में यों और आई कि साथ में लगन और कार्यतत्परता से प्रभावित डॉ० सा० थे, जो जैनधर्म की ओर हुये-विशेषतया प्रकाशचंद जी की आकृष्ट हुये हैं। सोचा, न जाने संलग्नता उनको मोह लेती थी। वह वह क्या समझेगे ? तांगावाला बार-बार कहते, 'लड़का बहुत लगन दीत वारिया ले गया, परंतु हमें ज्ञान का और उत्साही है।' । न था कि कहाँ उतरें? किन्तु भाई डॉ० हरिसत्य भट्टाचये भारप्रकाशचंद जी की सूझ ने हमारी तीय दर्शन शास्त्र के उद्भट विद्वान कठिनाई हल कर दी। मिशन की हैं। जैनदर्शन पर उन्होंक एक दो स्वागत समिति का साइनबोर्ड अपनी पुस्तकें भी लिखीं हैं। उनसे साक्षदुकान पर लगा रखा था। उसे देख त्कार भी यहाँ हुआ। उनमें क्रिया कर हम ठीक ठिकाने पहुँच गये। कांड की निष्ठा अब भी है। वह प्रकाश जी ही पहले मिले-मिलना हमसे पहले आ गये थे। उन्होंने भी वही चाहिये थे। उनके पिता जी आचार्य प्रभाचंद्र जी के 'सूत्र ग्रंथ' तो प्रेम की मूतिं मालूम हुये-तीन का अनुवाद अँग्रेजी में किया है, दिन तक उन्होंने जिस वात्सल्य और जो प्रकाशित होने को है। श्रवणके
आत्मीयता का परिचय दिया वह लगोल के गत महामस्तकाभिषेकोउन्हीं के अनुरूप था। वहीं विद्वद्वर्य त्सव (सन् १६४०) के उपरान्त यहाँ पं० नाथूलाल जी शास्त्री भी मौजूद ही हमें समाज के पुराने और सच्चे थे ! बिल्कुल सीधे सादे, मैं तो कार्यकर्ता सेठ मूलचंद किसनलाल जी उनको जल्दी पहिचान भी न पाया। कापड़िया के दर्शन भी हुये। मिलते उन्हें मथुरा संघ के शिविर में देखा ही वात्सल्य उमड़ आया और हम था। भाई प्रकाशचंद जी बोले, 'आप एक दूसरे के गले लगे हुए थे। उनके कल शाम नहीं आये ? स्टेशन पर साथ चिं० डाह्याभाई और उनकी हम सब लोग आपकी प्रतीक्षा में बहू तथा बेबी बालक भी था।