________________
उत्तर भारत की जैन मूर्ति कला (श्री कृष्णदत्त बाजपेयी एम० ए० पुरातत्व अधिकारी, उत्तर प्रदेश)
- [इन्दौर अहिंसा सम्मेलन के लिये लिखित] भारतवर्ष ने प्राचीन काल में इस दिशा में आवश्यक कार्य बहुत जीवन के विविध क्षेत्रों में जो उन्नति समय तक नहीं किया जा सका । इस को उसमें जैन धर्म का महत्वपूर्ण योग उपेक्षा का परिणाम यह हुआ कि है इस धर्म की छत्रछाया में जिस भारतीय इतिहास के अनेक युगों की साहित्य और कला का विकास शता. जानकारी अधूरी ही रह गई। ब्दियों तक होता रहा उसके अध्ययन यहाँ हमें उतर भारत की जैन की ओर अभी तक अपेक्षित ध्यान मूर्ति कला के सम्बन्ध में कुछ विचार नहीं दिया जा सका । कुछ समय करना है । बास्तव में जैन कला का पहले तो कितने ही विदेशी एवं देशी विस्तार इतना बड़ा है कि उसके विद्वान यह मानते थे कि जैन धर्म विषय में एक विस्तृत विवरण की हिन्दू या बौद्ध धर्म की ही एक शाखा आवश्यकता है। यह निश्चित रूप है और उसमें ऐसी कोई विशेषता से बता सकना कठिन है कि जैन मूर्ति नहीं जिसके कारण उसे महत्व दिया कला का प्रारम्भ कब हुआ। मथुरा, जा सके । १७८४ ई० में कलकत्त में उदयगिरि, खण्डगिरि आदि स्थानों रायल एशियाटिक सोसायटी के स्था- से जो प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं पन-काल से लेकर उन्नीसवीं शती उनसे पता चलता है कि ईस्वी सन् के अंत तक भारतीय इतिहास के के पहले उत्तर भारत में कई जगह अनेक अंगों पर अनुसन्धान हुए, जैन स्तूपों, विहारों तथा तीर्थकरपरंतु जैन धर्म एवं जैन साहित्य के प्रतिमाओं का निर्माण शुरू हो गया के विषय में बहुत कम खोज की गई। था। उड़ीसा की हाथी गुफा से मिले अधिकांश विदेशी विद्वानों का ध्यान हुए जैन राजा खारवेल के अभिलेख बौद्ध तथा वैदिक साहित्य की ओर से ज्ञात होता है कि इसकी पूर्व चौथी ही लगा रहा । यद्यपि याकोबी, ब्यूलर शताब्दी में मगध के राजा नन्द आदि कतिपय विद्वानों ने जैन साहि- (महापदमनन्द) तीर्थकर की प्रसिद्ध त्य और दर्शन के महत्व की ओर प्रतिमा कलिंग से पाटलिपुत्र उठा ले लोगों का ध्यान आकृष्ट किया, तथापि गए थे। इस मूर्ति को खारवेल मगध