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*श्री अखिल विश्व जैन मिशन के प्रथमाधिवेशन इन्दौर का भाषण २३ दिया था। उन्होंने जीने की कला देरी नहीं करनी चाहिये । अथवा यों सिखाई थी, उसमें सबको अपनी कहिये कि आप जो काम कर रहे हैं। तरह समझने के लिए अस्तेयका उसकी दिशा बदलती है। आज भी यानी दूसरे का शोषण न करने का धर्म प्रसार या धार्मिक कामों में महत्वपूर्ण स्थान था। पर यह तभी आपका पैसा और आपकी शक्ति सध सकता है जब मनुष्य अपने को खर्च होती है। लेकिन उसका आपको संयमी बनावे, जरूरत से अधिक पूरा फायदा नहीं मिलता, वह प्राप्त संग्रह न करे, यानी अपररिग्रह को करना हो तो छोटे मोटे मतभेदों अपनावे । इस तरह स्वेच्छा से को भुलाकर मिलजुल कर काम मानने में आनेवाली बाधाओं को करना सीखना चाहिये । व्यक्तिगत दूर करने का मार्ग बताया-था। प्रतिष्ठा को या साम्प्रदायिक कट्टरता उसमें स्वेच्छापूर्वक त्याग है। इस को छोड़कर काम की ओर ध्यान त्याग का परिणाम वही निकलता देना चाहिये। . है जो लोग आज जबर्दस्ती लाना इस तरह की सेवा से मानव चाहते हैं। यदि स्वेच्छा से 'अपरि- जाति का हित साध सकते हैं और ग्रह' नही अपनाया जाता तो 'अप- अपना भी भला कर सकते हैं। सेवा हरण' अनिवार्य है।
का काम जहाँ भी होता है उसमें समझदारों का कहना है कि अपने परायेपन को भूलकर लग जाना जबर्दस्ती लाई जानेवाली समता से चाहिये । ऐसी सेवा, नाम प्रतिष्ठा स्वेच्छा से अपनाई जानेवाली समता या पद की कामना न रखकर ही अधिक श्रेयस्कर है। इसलिये आज अच्छी तरह हो सकती है जब हम भगवान महावीर का मार्ग सबको सेवा को साधन बनाकर तत्त्वों का कल्याणकारी लगना सम्भव है। प्रसार करेंगे तब उसका परिणाम परिवर्तन तो होगा ही। हिंसा से अच्छा ही होगा । यह सब मिलजुल हये परिवर्तन के प्रारम्भ में भी नाश कर ही अच्छी तरह हो सकेगा। है और अन्त में परिणाम क्या माना कि सब के विचार समान श्रावेगा इसका भी कोई भरोसा नहीं, नहीं होते, सब की भूमिका भिन्न"पर अहिसा के मार्ग में ये दोनों भिन्न होती है लेकिन जिसमें हमारा खतरे नहीं हैं।
मतभेद नहीं है वे काम तो उन लोगों मिलजुल कर काम करें । के साथ मिलकर किये जा सकते .. आपके पास साधन मौजूद हैं हैं । इससे काम में व्यवस्थितपन
और कार्य के लिये अवसर भी आकर हमारी शक्ति का अच्छा योग्य है। इसलिये हमें इस काम में उपयोग होगा।