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*अहिंसा-वाणी रास्ता है। तीसरे दिन पहुँच कर की व्यवस्था कर दी। धीरे-धीरे उसने जार्ज लिया। .
उसने वहाँ कोढ़ियों के लिये कुष्ठाचार्ज लेते ही चपरासी का श्रम (लेपर कोलनी) बनवा दी और मामला आया। उसे कोढ़ हो गया और अपने आप को इन दुखितों की था । उसे काम पर रखना या नहीं सेवा में लगा दिया। इसका निर्णय उसे करना था। क्लर्क - मिशन के नियमानुसार तीन ने बताया कि यह चपरासी मिशन में साल में तीन महीने की छुट्टी बरसों से काम कर रहा है, पर इसे मिलती है ताकि कुटुम्बियों से मिला कोढ़ हो गया है । कोढ़ छूत की जा सके । उसे छुट्टी मिली। माता बीमारी है। उस बहनने चपरासी का आग्रह भी था । उसने कोढ़ियों को अपने नजदीक बुलाकर पूछताछ की दशा का वर्णन लिखकर माता की, क्योंकि उसे इस बीमारी की पिता से . पूछा कि बताइये, इन्हें भयानकता की कल्पना बिल्कुल नहीं छोड़कर कैसे आऊँ ? बाद में वह थी।
अमेरिका गई ही नहीं । जब उसे चपरासी ने बताया कि, "मझे सेवा से रिटायर होना पड़ा तब वह यह बीमारी वंशानुगत है। पहले दो कोढ़ियों में रहने लगी और अपनी भाइयों को भी हो गई थी। एक पता जिन्दगी बिता दी । जब उसका नहीं कहाँ भीख मांगता फिरता है देहान्त हुआ तब वहां पर एक सौ और दूसरा त्रस्त होकर आत्महत्या पचास कोढ़ियों के रहगे आदि की करें बैठा मुझे न निकालें, नहीं तो व्यावस्था थी। बड़ी बुरी दशा होगी।"
हमारे मिशनरी यह सुनकर बहन को बड़ी वेदना मिशन तो हमने खड़ा कर लिया हुई। उसने इस बीमारी की जानकारी लेकिन मिशनरी कहां हैं ? ऊपर के एकत्र की । छूत की बीमारी होने से उदाहरणों के प्रकाश में, हमरा ख्याल कोढ़ी का सब तिरस्कार करते हैं है हमारे साधुओं से बढ़कर और और कोढ़ी को रहने, खाने पीने कोई इस काम को नहीं कर सकता आदि के लिये भीख मांगनी पड़ती अगर हम चाहते हैं कि जैन तत्वों का है, ऐसा उसे मालूम हुआ। प्रचार हो, लोग जैन धर्म और
.. उस बहन ने चपरासी को काम समाज की ओर आकर्षित हों तो हमें पर रग्वना तो ठीक नहीं समझा, उनके लिये उपयोगी बनना होगा। लेकिन इसका जीवन सुख से बीते जिस प्रकार ईसाई साधु प्रत्यक्ष सेवा इसलिये पास के खेत में उसके लिये का काम करते हैं वैसे ही हमारे घर बनवा दिया और उदर निर्वाह साधुओं को भी करना चाहिये ।