Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ विवेचन सहित नहीं) कण्ठस्थ करवाकर, योगोदहन करवाकर बड़ी दीक्षा देते हैं। इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय और इसके अन्तरंग स्वरूप का परिचय देते हुए श्री दलसुख मालवणिया ने "दसकालिक सुत्तं" की प्रस्तावना पृष्ठ 4-5 पर लिखा है: "इस ग्रन्थ में भिक्षुओं के धर्ममूलक प्राचार का निरूपण है। खासकर निम्रन्थ मुनियों के प्राचार के नियमों का विस्तार से निरूपण इस सूत्र में है। उसमें संयम ही केन्द्र में है । वह भिक्षु यदि संयत है तो जीव हिंसा से बचकर किस प्रकार अपना संयमी जीवन धैर्यपूर्वक बितावे इसका मार्गदर्शन इसमें है । अतएव भिक्षु के महाव्रत तथा उसके आनुषंगिक नियमों का वर्णन विस्तार से करना अनिवार्य हो जाता है । यही कारण है कि इसमें पांच महावंत और छठा रात्रिभोजन विरमण व्रत की चर्चा की गई है। संयम का मुख्य साधन शरीर है और शरीर के लिए भोजन अनिवार्य है। वह भिक्षा से ही सम्भव है। अतएव किस प्रकार भिक्षा ली जाय जिससे देने वालों को तनिक भी कष्ट न हो-और भिक्षु को-योग्य भिक्षा भी मिले यह कहा गया है । जीव में समभाव की पुष्टि अनिवार्य मानी गई है जिससे मनोवांछित भिक्षा न भी मिले तब भी क्लेश मन में न हो तथा अच्छी भिक्षा मिलने पर राग का आविर्भाव न हो यह जीवन मंत्र दिया गया है । संयत पुरुष की भाषा कैसी हो-जिससे किसी के मन में उसके प्रति कभी भी दुर्भाव न हो-यह भी विस्तार से प्रतिपादित किया गया है । यह तभी संभव है जब उसमें प्राचार शुद्धि हो अर्थात् कषाय-राग-द्वेष आदि से मुक्त होने का जागरूक प्रयत्न हो, अहिंसा हो, दयाभाव हो और अपने शरीर के कष्टों के प्रति उपेक्षा हो । लेकिन आचार-शुद्धि का.. मुख्य कारण सुगुरु की उपासना भी है, vi] [ चयनिका

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 103