________________ प्रस्तुत समवाय में तीन दण्ड का उल्लेख है। दुष्प्रवृत्ति में संलग्न मन, वचन और काय, ये तीन दण्ड हैं। इन से चारित्र रूप ऐश्वर्य का तिरस्कार होता है। प्रात्मा दण्डित होता है। इसलिये इन्हें दण्ड कहा है। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति जो संसाराभिमुख है, वह दण्ड है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पूर्वक मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को अपने मार्ग में स्थापित करना गुरित है / 22 गुप्ति के तीन प्रकार हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति / मनोगुप्ति का अर्थ है संरम्भ समारम्भ, और प्रारम्भ में प्रवृत्त मन को रोकना / 23 उपर शब्दों में कहा जाये तो राग-द्वेष आदि कषायों से मन को निवृत्त करना मनोगुप्ति है। असत्य भाषण आदि से निवृत्त होना या मौन धारण करना, वचनगुप्ति है।२४ असत्य कठोर प्रात्मश्लाघी वचनों से दूसरों के मन का धात होता है अतः ऐसे बचन का निरोध करना चाहिए / 25 अज्ञानवश शारीरिक क्रियाओं द्वारा बहुत से जीवों का पात होता है। अतः अकुशल कायिक प्रवत्तियों का विरोध करना कायगुप्ति है। साधना की प्रगति में शल्य बाधक है। शल्य अन्दर ही अन्दर कष्ट देता है। वैसे ही माया, निदान और मिथ्यादर्शन ये साधना को विकृत करते हैं। साधक को इन से बचना चाहिये। अभिमान और लोभ से आत्मा भारी बनता है और अपने आप को गौरवशाली मानता है। पर वह अभिमान से उत्तप्त हुए चित्त की एक विकृत स्थिति है / साधना की दृष्टि से वह गौरव नहीं, रौरव है। इसलिये साधक को तीनों प्रकार के गौरव से बचने का संकेत किया है / ज्ञाए, दर्शन और चारित्र ये तीनों मोक्ष-मार्ग हैं। इन्हें रत्नत्रय भी कहा गया है / यहां पर ज्ञान से सम्यग्ज्ञान को लिया गया है जो सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है। जीव मिथ्याज्ञान के कारण अपने स्वरूप को विस्मत होकर, पर द्रव्य में आत्म बद्धि करता है। उस का समस्त क्रियाकलाप शरीराश्रित होता है। लौकिक यश, लाभ, आदि की दृष्टि से वह धर्म का प्राचरण करता है। उसमें स्व और पर का विवेक नहीं होता है / किन्तु सम्यग्दर्शन द्वारा साधक को स्व और पर का यथार्थ परिज्ञान हो जाता है / 27 वह संशय, विपर्यय, और अनध्यवसाय—-इन तीन दोषों को दूर कर प्रात्म-स्वरूप को जानता है।२८ अात्मस्वरूप को जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है / 26 जीव, अजीव, पाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष तत्त्व के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन से यथार्थ, अयथार्थ का बोध उत्पन्न होता है। रागादि कषाय परिणामों के परिमार्जन के लिये अहिंसा, सत्य, आदि व्रतों का पालन “सम्यग-चारित्र" है। इन तीनों की विराधना करने से साधक साधना से च्यत होता है। इस प्रकार ततीय स्थान में तीन संख्या को लेकर अनेक तथ्य उद्घाटित किये गये हैं। 22. (क) उत्तराध्ययन अं. 24, गा. 26 (ख) सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः - तत्त्वार्थमूत्र 9/4 (ग) ज्ञानार्णव 18/4 (4) आर्हत् दर्शन दीपिका 5/642 (ङ) गोपनं गुप्ति:--मन: प्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति 23. रामादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति- मूलाराधना 6/1187 24. योगशास्त्र 1/42 25. उत्तराध्ययन 24/24-25 26. उत्तराध्ययन 24/25 27. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् / --प्रमेयरत्नमाला-१ 28. तातें जिनवर कथित तत्त्व अभ्यास करीजे। संशय विभ्रम मोह त्याग प्रापो लख लीजे।। -छहढाला 4/6 . 29. छहढाला 3/2 / [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org