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विद्वान् उसे मस्तक झुकाने लगे । एक दिन भोजकी सभामें कालिकाके साक्षात् दर्शन कराके तो उसने अपना प्रभाव और भी बढा लिया । महाराज भोजके हृदयमें उसके महत्त्वने भलीभाति स्थान पा लिया ।
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एक दिन उज्जयिनीके प्रसिद्ध सेठ सुदत्त अपने मनोहर नामके पुत्रको साथ लिये हुए भोजमहाराजकी सभा में गये थे । महाराजने कुशलमंगल पूछकर उन्हें आदरके साथ बिठाया । और पूछा, शेठजी, पका यह बालक होनहार जान पड़ता है । आपने इसे कुछ पढाया भी है, या नहीं । शेठने कहा -- महाराज, अभी इसका विद्यारंभ ही है । केवल नाममालाके श्लोक इसने कंठस्थ किये हैं । एक अश्रुतपूर्व ग्रन्थका नाम सुनकर भोजने पूछा, -- नाममालाका नाम आज तक कहीं सुननेमे नहीं आया । क्या आपको मालूम है कि, वह किसकी बनाई हुई है ? सुदत्त श्रेष्ठिने कहा, महाराज आपके इसी नगरमे एक धनंजय नामके महाकवि रहते है, उन्हींकी बनाई हुई यह नाममाला है । इसपर भोजने सेठको उलाहना दिया कि, ऐसे बढे भारी विद्वान्को जानते हुए भी आपने हमसे कभी नहीं मिलाया, यह आपको नहीं चाहिये । कालिदास और धनंजय के वीचमें कुछ असमंजस था । इस लिये राजाके समीप धनंजयकी इतनी प्रशंसा उन्हें सहन नहीं हुई । वे बोले, - महाराज, कहीं, यति महाजन भी वेद पढ़ते है । इन वेचारोके पास विद्या कहासे आई ? परन्तु महाराजको तो विद्वानोंसे मिलनेका एक व्यसन ही था, इसलिये उन्होंने यह सब सुनी अनसुनी कर दी, और अपने एक मंत्रीको धनंजयके लेनेके लिये भेज ही दिया। थोडी ही देरमें धनजय आ पहुंचे। उन्होंने एक आशीर्वादात्मक सुन्दर श्लोक पढकर सारी सभाको प्रसन्न कर दिया । महाराजने सत्कार करके विठाया और कुशल प्रश्नके अनन्तर पूछा - " आपको एक विख्यात विद्वान् सुना है । परन्तु आश्चर्य है कि, आजतक हमसे आप नहीं मिले ।" धनंजयने विहँसकर कहा, "कृपानाथ, आप पृथ्वीपति हैं, जबतक पुण्यका प्रबल उदय न हो, तबतक आपके
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